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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
तरफ ही दृष्टि है (नवि न्यानं नवि दंसनं चरनं) तो वहाँ न दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र है ।
विशेषार्थ - जिसकी दृष्टि शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र पर है, जिसे आत्मानुभूति है, वहीं निश्चय सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र है और यही मोक्षमार्ग है । जहाँ शुद्धात्मा का अनुभव नहीं है, न स्व-पर का यथार्थ ज्ञान है किन्तु कर्मकृत व्यवहार रचना में ही ध्यान है, व्यवहार सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र पर ही लक्ष्य है तथा पर्यायी परिणमन में ही संतुष्ट है, पर्याय पर ही दृष्टि है, वहाँ न दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र है, न सच्चा मोक्षमार्ग है ।
सम्यक दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानता है, अनुभव करता है और अपने को अन्य समस्त व्यवहार भावों से भिन्न जानता है। जब से उसे स्व-पर का विवेक स्वरूप भेदविज्ञान प्रगट हुआ, तभी से वह समस्त विभाव भावों का त्याग कर चुका है और तभी से उसने टंकोत्कीर्ण निज भाव अंगीकार किया है। स्वभाव दृष्टि की अपेक्षा से ऐसा होने पर भी, वह पर्याय में पूर्वबद्ध कर्मों के उदय के निमित्त से अनेक प्रकार के विभावभाव रूप परिणमित होता है। इस विभाव परिणति को पृथक् होती न देखकर वह आकुल-व्याकुल भी नहीं होता और वह सकल विभाव परिणति को दूर करने का पुरुषार्थ किये बिना भी नहीं रहता । सकल विभाव परिणति से रहित स्वभाव दृष्टि के बल स्वरूप पुरुषार्थ से गुणस्थानों की परिपाटी के सामान्य क्रमानुसार उसके प्रथम अशुभ परिणति की हानि होती है और फिर धीरे-धीरे शुभ परिणति भी छूटती जाती है। ऐसा होने से वह शुभराग के उदय की भूमिका में गृहवास और पाप परिग्रह का त्यागी होकर सम्यक् चारित्र की साधना के लिये साधुपद में प्रतिष्ठित होता है। यहाँ स्वभाव साधना से अरिहंत पद केवलज्ञान प्रगट होता है और सर्व कर्म क्षय होने पर पूर्ण मुक्त, शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाता है, यही सच्चा मोक्षमार्ग है। इसके विपरीत जो मन को रंजायमान करने के लिये बाह्य में दर्शन ज्ञान चारित्र रूप परिणमन करता है परंतु दृष्टि पर्याय पर ही रहती है तो वह मुक्तिमार्ग नहीं है।
संयम के निमित्तपने की बुद्धि से मुनि चर्या में जो आगमोक्त आहार, अनशन, गुफादि में निवास, विहार, देहमात्र परिग्रह, अन्य मुनियों का परिचय और धार्मिक चर्चा वार्ता के सुयोग पाये जाते हैं उनके प्रति भी रागादि करना योग्य नहीं है, उनके विकल्पों में भी मन को रमने देना योग्य नहीं है क्योंकि
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उससे संयम में छेद होता है।
अशुद्धोपयोग से शुद्धोपयोग रूप मुनित्व छिदता है, हनन होता है इसलिये अशुद्धोपयोग छेद ही है, हिंसा ही है और जहाँ सोने, बैठने, खड़े होने में चलने इत्यादि में असंयमित आचरण होता है वहाँ नियम से अशुद्धोपयोग तो होता ही है।
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गाथा ३८८ **--
शुद्धोपयोग का हनन होना वह अंतरंग हिंसा है और दूसरे के प्राणों का विच्छेद होना बहिरंग हिंसा है, जो संसार का कारण है। आत्मानुभूति पूर्वक सम्यक्दर्शन, तत्पूर्वक तत्वार्थ श्रद्धान, सम्यक्ज्ञान और उन दोनों पूर्वक संयतपना, स्वरूप गुप्ति आत्मध्यान ही मोक्षमार्ग है ।
प्रश्न- इतनी आगमभक्ति, व्रत, तप क्रिया आदि करने का क्या परिणाम है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अन्यानं भत्तीए, अन्यानं सहकार न्यान विरयन्तो ।
तव वय क्रिय पज्जावं, अन्यानं सहकार दुष्य वीयम्मि ॥ ३८८ ॥ अन्वयार्थ (अन्यानं भत्तीए) अज्ञानपूर्वक भक्ति करना अथवा अज्ञान भक्ति करना ( अन्यानं सहकार न्यान विरयन्तो) अज्ञान के सहकार से ज्ञान विला जाता है, छूट जाता है अर्थात् मिथ्याज्ञान के कारण सम्यक्ज्ञान का अभाव ही रहता है (तव वय क्रिय पज्जावं) केवल शरीर सम्बंधी काय क्लेश, तप, व्रत क्रिया आदि करना ( अन्यानं सहकार दुष्य वीयम्मि) अज्ञान का सहकार मिथ्याज्ञान होने से दुःखों के बीज बोना है।
विशेषार्थ सम्यक्दर्शन सहित ज्ञान को सम्यक्ज्ञान कहते हैं, जहाँ शुद्धात्मा का यथार्थ श्रद्धान तथा ज्ञान है। ऐसे सम्यक्दर्शन ज्ञान सहित सम्यक् चारित्र के हेतु व्रत, तप, क्रिया करना मोक्षमार्ग का साधन है परंतु सम्यक्त्व रहित अज्ञान पूर्वक आगम की भक्ति अर्थात् शास्त्र स्वाध्याय करना तथा पर्याय दृष्टि से व्रत तप क्रिया करना, यह केवल पुण्य के हेतु से अथवा मान प्रतिष्ठा के हेतु से साधना, मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान होने से बंध के ही कारण हैं यह तो संसार दुःख का ही बीज बोना है।
जो अज्ञानी मिथ्याभाव सहित परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ भी हो गया है, कायोत्सर्ग करना, मौन धारण करना, इत्यादि बाह्य क्रियायें करता है तो उसकी
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