________________
*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
-
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं न्यान सहावं जानदि, न्वानं विन्यान मनुव रंजेई । ज्यान अन्मोय अन्तर, अन्यानं सहकार नरय वासम्मि ॥ ३८६ ॥
अन्वयार्थ (न्यान सहावं जानदि) ज्ञान स्वभाव को जानकर अर्थात् आत्मा के सम्बंध में पूरी जानकारी हो जाना (न्यानं विन्यान मनुव रंजेई) भेदविज्ञान के द्वारा मन को रंजायमान करना (न्यान अन्मोय अन्तरयं ) ज्ञान के आलंबन में अंतराय डालकर (अन्यानं सहकार नरय वासम्मि) अज्ञान का सहकार करना इससे नरक में वास करना पड़ेगा ।
विशेषार्थ - आत्मानुभूति, आत्मज्ञान प्रयोजनीय इष्ट हितकारी है, आत्मा के सम्बंध की जानकारी, ज्ञान स्वभाव की बड़ी-बड़ी चर्चा, भेदविज्ञान की बातें करके मन को रंजायमान करना, अपने को ज्ञानी श्रेष्ठ मानना, ज्ञान के आलंबन आत्मानुभूति में अंतराय डालकर, अज्ञान, पर पर्याय शरीरादि का सहकार करना, विद्वत्ता का प्रदर्शन करना, इससे तो नरक में वास करना पड़ेगा ।
धर्म चर्चा का विषय नहीं है चर्या का विषय है। ज्ञान स्वभाव आत्मा की जानकारी नहीं, अनुभूति करना इष्ट है। भेदविज्ञान, सम्यक्दर्शन के लिये प्रयोजनवान है। भेदविज्ञान की चर्चा करके मन को रंजायमान करना, दूसरे लोगों को ज्ञान विज्ञान की बड़ी-बड़ी चर्चायें सुनाना, बताना और स्वयं आत्मज्ञान शून्य, अज्ञान मिथ्यात्व में लगे रहना यह तो संसार, दुर्गति का कारण है।
जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप, व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, यह शरीर में हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता तथा आत्मा की भेदविज्ञान की चर्चा करके मन को रंजायमान करता है, वह सत्य मार्ग को दूर से छोड़कर, संसार का ही आश्रय लेता है ।
शुद्धात्मा सत् और अहेतुक होने से अनादि अनंत और स्वतः सिद्ध है इसलिये आत्मा के लिये शुद्धात्मा ही ध्रुव है, दूसरा कुछ भी ध्रुव नहीं है । आत्मा ज्ञानात्मक दर्शनरूप इन्द्रियों के बिना ही सबको जानने वाला
२२०
गाथा ३८६, ३८७*-*-*-*-*-*
-
महापदार्थ, ज्ञेय पर पर्यायों का ग्रहण त्याग न करने से अचल और ज्ञेय परद्रव्यों का आलंबन न लेने से निरालम्ब है इसलिये वह एक है। इस प्रकार एक होने से वह शुद्ध है ऐसा शुद्धात्मा ध्रुव होने से वही एक उपलब्ध है ।
सकल आगम के सार को हस्तामलकवत् करने से जो पुरुष भूत, वर्तमान, भावी स्वोचित पर्यायों के साथ अशेष द्रव्य समूह को जानने वाले आत्मा को जानता है, श्रद्धान करता है और संयमित रखता है, उस पुरुष के आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान, संयतत्व का युगपत्पना होने पर भी यदि वह किंचित् मात्र भी मोहमल से लिप्त होने से शरीरादि के प्रति, तत्संबंधी मूर्च्छा से विरत रहने से निरूपराग उपयोग में परिणत करके ज्ञानात्मक आत्मा का अनुभव नहीं करता तो वह पुरुष मात्र उतने मोहमल कलंकरूपी कीले के साथ बंधे हुए कर्मों से नहीं छूटता।
दुनियाँ में मेरा ज्ञान प्रसिद्ध होवे, दुनियाँ मेरी प्रशंसा करे और मैं जो कहता हूँ, उससे दुनियाँ खुश होवे, ऐसा जनरंजन, मनरंजन जिसके अंदर वर्तता है, उसका धारणा ज्ञान (क्षयोपशम ज्ञान) भले सच्चा हो तो भी वह वास्तव में अज्ञान है, मिथ्याज्ञान है। ज्ञान की चर्चा करने या अन्य विशिष्टता से अंतर वस्तु प्राप्त हो जाये ऐसा नहीं है, अंतर स्वभाव की दृष्टि करें, उसको लक्ष्यगत करें, उसका आश्रय करें, उसके सम्मुख हों तब ही अतीन्द्रिय शांति और आनंद प्राप्त होता है। इस प्रकार सर्व प्रकार से भेदज्ञान की प्रवीणता से यह अनुभूति है सो ही मैं हूँ, ऐसे आत्मज्ञान होता है। व्यवहार रत्नत्रय का राग है सो मैं नहीं, ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर यह अनुभूति ही मैं हूँ ऐसा सम्यक्ज्ञान होता है।
प्रश्न- सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र तो मुक्ति मार्ग है, इसमें तो कोई बाधा नहीं है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
न्यानं दंसन सम्मं, चरनं चरन्ति मनुव रंजेइ ।
जदि पज्जाव सदि, नवि न्यानं नवि दंसनं चरनं ॥ ३८७ ॥ अन्वयार्थ (न्यानं दंसन सम्मं ) सम्यक्दर्शन ज्ञान (चरनं चरन्ति मनुव रंजेइ) चारित्र तो मुक्तिमार्ग है परंतु इनका सही पालन हो, यदि मन को रंजायमान करने के लिये करते हैं (जदि पज्जाव सदिहं ) यदि पर्याय की
-
*