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गाथा -३८५--
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1947-26-06-1* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - जदि कस्टं च अनेयं, श्रुतं तवं च नन्तनन्ताई। जदि पज्जावं पिच्छदि, न्यानंतर दुष्य वीयम्मि ।। ३८५॥
अन्वयार्थ - (जदि कस्टं च अनेयं) यदि अनेक कष्ट उठाकर (श्रुतं तवं च नन्तनन्ताई) अनेक प्रकार के शास्त्रों को पढ़े, जाने तथा नाना प्रकार के व्रत तप आदि करे (जदिपज्जावं पिच्छदि) यदि पर्यायों को जानने समझने में लगा रहा, यह ऐसा है और यह ऐसा है, शरीरादि की क्रिया में राग भाव रहा तो (न्यानंतरं दुष्य वीयम्मि) ज्ञान में अंतर डालने से अंतराय कर्म का बंध पड़ेगा जो दु:खों का बीज है।
विशेषार्थ - पर्याय दृष्टि संसार का कारण है, स्वभाव दृष्टि मुक्ति का मार्ग है । यदि कोई बहुत परिश्रम करके ग्यारह अंग नौ पूर्व तक शास्त्रों को जान ले तथा शरीर को क्लेश देता हुआ अनेक प्रकार के तप करे, साधुचर्या भी पाले परंतु आत्मज्ञान से शून्य हो, भावना मान प्रतिष्ठा की हो व आगामी विषय भोगों के भोगने की हो तो उसको मिथ्याज्ञान होने से अंतराय कर्म का ही बंध होगा जो दु:खों का बीज बोना है।
सम्यकदर्शन ज्ञान पूर्वक चारित्र होता है, चारित्र ही धर्म है, धर्म साम्य है। साम्य-मोह क्षोभ रहित परिणाम है इसलिये संयत का साम्य लक्षण है। वहाँ-१. शत्रु-बंधु वर्ग में, २. सुख-दु:ख में, ३. प्रशंसा-निंदा में, ४. मिट्टी के ढेले और सोने में, ५. जीवन-मरण में एक ही साथ, ६. यह मेरा स्व है, यह पर है, ७. यह आल्हाद है, यह परिताप है, ८. यह मेरा उत्कर्षण है, ९. यह मुझे अकिंचित्कर है, यह उपकारक है, १०. यह मेरा स्थायित्व है, यह अत्यंत विनास है। इस प्रकार मोह के अभाव के कारण सर्वत्र जिसको राग-द्वेष का द्वैत प्रगट नहीं होता, जो सतत् विशुद्ध दर्शन ज्ञान स्वभाव आत्मा का अनुभव करता है और वास्तव में जो सर्वथा साम्य है, वह ज्ञानी सम्यकदृष्टि संयमी है। यदि जिसके शरीरादि के प्रति परमाणु मात्र भी मूछा वर्तती हो तो वह भले ही सर्वागम का धारी हो तथापि सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो मुक्ति नहीं होती तथा पदार्थों का श्रद्धान
करने वाला यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता। आत्म ज्ञान से 2 शून्य जीव का सर्व आगम ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा संयतत्व का युगपत्पना
भी अकिंचित्कर है अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता। आत्म अनुभव के बिना 子各多长长长卷卷落
सब कुछ शून्य है। लाख कषाय की मंदता करो, तपादि पालो या लाख शास्त्र पढ़ो किन्तु अनुभव बिना सब कुछ शून्य है।
प्रश्न- तो इसका अर्थ यह है कि शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, तपादि कुछ नहीं करना चाहिये?
समाधान- आत्मज्ञान से शून्य शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, तपादि पुण्यबंध संसार के कारण हैं, करने नहीं करने की बात नहीं है, वह तो जो जीव जिस भूमिका में होता है उसका उस रूप परिणमन चलता ही है परंतु सम्यक्दर्शन, ज्ञान के बिना यह मात्र कार्यकारी नहीं हैं।
प्रश्न- सम्यदर्शन ज्ञान भी तो शास्त्र स्वाध्याय, व्रत तपादि से ही होता है?
समाधान - आत्मानुभूति को सम्यक्दर्शन और स्व-पर के यथार्थ निर्णय को सम्यक्ज्ञान कहते हैं, यह पराश्रितपने से नहीं, स्वाश्रितपने से होते हैं । आत्मा का लक्ष्य होने, पर से दृष्टि हटने पर ही सम्यक्दर्शन ज्ञान होता है।
आत्मज्ञान की प्राप्ति हेतु, शास्त्र स्वाध्याय करना, विचार, मनन करके तत्त्व का निर्णय करना तथा शरीरादि और राग से भेदज्ञान का अभ्यास करना यह सहकारी निमित्त है।
प्रश्न- आत्मा की अनुभूति होने के बाद शास्त्र स्वाध्याय व्रत तपादि करने की क्या आवश्यकता है उससे क्या लाभ है?
समाधान - सम्यवर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: शुद्धात्मा का अनुभव होने के पश्चात् पाचवें और छठे गुणस्थान में उस प्रकार के शुभराग आए बिना नहीं रहते, तदनुसार सहज आचरण होता है तभी मुक्ति मार्ग बनता है।
साधक जीव को भूमिकानुसार श्रुत चिंतवन, अणुव्रत, महाव्रत आदि के शुभभाव आते हैं, होते हैं। जैसे-बीज बोने पर अंकुर, पत्ते, फूल, फल आदि अपने आप लगते हैं, होते हैं, अगर यह न हों तो बीज का कोई मूल्य अस्तित्व नहीं है, इसी प्रकार सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र होता ही है।
प्रश्न-तो पहले भेदविज्ञान और आत्मा की चर्चा करेंज्ञान स्वभाव
को जाने?
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