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________________ *** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-३८४---- ------- 长长长长长长 答是当长卷卷卷新 किया जाता है तथापि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। ऐसा जानकर * इसका निरंतर अभ्यास करना । जिसका न आदि है न अंत है तथा जिसका * कोई कारण नहीं और जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं है, ऐसे ज्ञान स्वभाव को 2 ही उपादेय करके केवलज्ञान की उत्पत्ति के बीजभूत अंकुर स्वरूप शुक्लध्यान नामक स्वसंवेदन ज्ञान रूप से जब आत्मा परिणमित होता है, तब उसके निमित्त से सर्वघाति कर्मों का क्षय हो जाता है और उस क्षय होने के समय ही आत्मा स्वयमेव अनंत चतुष्टय स्वरूप केवलज्ञान रूप परिणमित होने लगता है; यदि एक समय के लिये भी ऐसे ज्ञानोपयोग से हटा जाता है और पर पर्याय में लगा जाता है तो यह ज्ञान का अंतर, अंतराय अनंत संसार की दुर्गति का पात्र बनाता है। पर पदाथों का हीनाधिक ज्ञान आत्मानुभव में प्रयोजनवान नहीं है इसलिये पर द्रव्य के अधिकज्ञान को करने की आकलता छोडकर आत्म अनुभव करने का अभ्यास कर, उसमें तेरा भला है। प्रश्न- यह स्थिति कैसे बने? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंपज्जावं पर पिच्छं, पज्जाव नन्त विषेस संदिह । पज्जावं विरयन्तो, न्यानं अन्मोय कम्म संषिपनं ॥ ३८४ ॥ अन्वयार्थ - (पज्जावं पर पिच्छं) पर्यायों को पर जानना चाहिये (पज्जाव नन्त विषेस संदिट्ठ) पर्याय अनंत प्रकार की विशेषताओं सहित दिखाई देती है (पज्जावं विरयन्तो) इन सब पर्यायों से विरक्त रहना चाहिये (न्यानं अन्मोय कम्म संषिपनं) ज्ञान का आलंबन रखने अर्थात् आत्मज्ञान में रत रहने से कर्मों का क्षय होता है। विशेषार्थ - कर्मों के उदय से निगोद से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यंत अनेक व्यंजन पर्यायें तथा भावों की अपेक्षा अनंत प्रकार के अज्ञानभाव व असंख्यात प्रकार के कषाय भाव होते हैं, यह सर्व ही भाव पर हैं, मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो ज्ञाता दृष्टा, वीतराग, आनंदमयी, धुवतत्त्व, शुद्धात्मा हूँ। ऐसा जानकर जो सर्व सांसारिक अवस्थाओं से विरक्त और निश्चिन्त होकर निज * आत्मा के अनुभव में लीन होते हैं तथा आत्मानंद का पान करते हैं उनके कर्मों का विशेष क्षय होता है। पर्याय एक समय की होती है, चाहे वह स्व द्रव्य की हो या पर द्रव्य की हो । संयोगी पर्याय जीव पुद्गल की यह मनुष्यादि पर्यायें हैं । यह सब ही पर्यायें क्षणभंगुर नाशवान असत् हैं। पर्याय से दृष्टि हटाकर जो स्वभाव की साधना करता है, ज्ञान स्वभाव में लीन रहता है उसके कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट होता है। भेदविज्ञान की प्राप्ति में आनंद मानना, आत्मज्ञान प्राप्त करना ही कर्तव्य है, यह भावना भानी चाहिये कि परमात्म पद प्रगट हो। नय श्रुतज्ञान प्रमाण का अंश है। प्रमाण ज्ञान को प्रामाणिकता तब ही प्राप्त होती है कि जब अंतर दृष्टि में विभाव और पर्याय के भेद से रहित शुद्धात्म द्रव्य धुव स्वभाव की श्रद्धा के अवलंबन में उग्रता निरंतर वर्तती हो, ज्ञान को ध्रुव स्वभाव के अवलंबन का बल सदैव वर्तता होने से उसका ज्ञान सम्यक् प्रमाण है। आत्मा को जानने वाला धर्मी जीव जिसको स्वसंवेदन आनन्द अनुभूति सहित का एक अंश ज्ञान प्रगट हुआ है, ऐसा ज्ञानी उस अनुभव की पर्याय का भी लक्ष्य नहीं करता, वह एकदेश प्रगट पर्याय रूप है। वह एक समय की पर्याय के पीछे विराजमान सकल निरावरण अखंड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय, अविनश्वर शब परम पारिणामिक लक्षण निज परमात्म तत्वका ध्यान करता है, इसी से सब कर्म क्षय होते हैं। जिन्होंने स्वयं के पर्याय अंश से दृष्टि हटाकर द्रव्य पर दृष्टि की, वे अन्य द्रव्यों को भी उनकी पर्याय से नहीं, बल्कि उन्हें द्रव्य स्वभाव अखंड रूप देखते हैं। सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है, उसका जो जीव अवलंबन ले उसे उस ध्रुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है। ज्ञानी उसे कहते हैं कि जो त्रिकाली ध्रुव स्वभाव को पकड़े है, उसकी पर्याय में वीतरागता प्रगट होने पर भी वह पर्याय में रुकता नहीं। उसकी दृष्टि तो त्रिकाली धुव पर ही टिकी है। धर्म दशा प्रगट हो, निर्मल पर्याय हो परंतु ज्ञानी इन पर्यायों में नहीं रुकता । यदि ध्रुव स्वभाव की दृष्टि छूट जाये और एक समय की पर्याय की महिमा, महत्ता लगे उसकी रुचि हो जाये तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। प्रश्न- तो फिर यह शास्त्र स्वाध्याय, व्रत, तप आदि करना कैसे होगा? 帝要带些印章速水 २१८
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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