________________
गाथा-३७७,३७८
------
-HIKHE
立法法》卷 22-21
长地带业市些京市市中
**** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
मेरा केवलज्ञान स्वभाव है (इस्टं मोहं च विगत संसारे) ऐसे इष्ट निज * कारण परमात्मा का मोह संसार से छुडाने वाला है (जदि कल मोह सहावं)
यदि शरीर के मोह में लिप्त रहे (कल सहकार नंत संसारे) तो इस शरीर के * मोह से अनंत संसार में रुलना पड़ेगा।
विशेषार्थ- मोह की स्थिति अंतर्मुहर्त है. इससे चालीस और सत्तर कोडाकोडी सागर की मोहनीय कर्म की स्थिति बंधती है। मोह की पर्याय एक समय की होती है। यदि अपने शुद्ध दर्शन, शुद्ध ज्ञान स्वभावी आत्मा का मोह है, इसकी इष्टता, इसका प्रेम है और इसमें रति होती है तो अड़तालीस मिनिट (एक मुहूर्त) में सारे कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट होता है, संसार के जन्म-मरण का चक्र छूट जाता है और यदि स्वभाव के विपरीत पर्याय का आकर्षण, मोह रहा, वर्तमान पर्याय को इष्ट हितकारी माना तो अनंतानंत पर्यायों को धारण करना पड़ेगा, अनेक पर्यायों में जन्म लेना पड़ेगा।
ज्ञानमयी निज शुद्धात्म स्वभाव का मोह, अपने इष्ट निज कारण परमात्मा धुव स्वभाव की प्रियता, रुचि, लगन होकर उसमें रति होने से संसार का परिभ्रमण छूट जाता है, स्वयं अरिहंत सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं। यदि शरीरादि संयोगी पर्याय का मोह रहा तो अनंत संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा । यह सब दृष्टि का विषय और मान्यता का खेल है, क्या चाहिये, क्या होना है ? सारी शक्ति अपने हाथ में है। एक तरफ मुक्ति, एक तरफ संसार है, जिस तरफ दृष्टि घुमाओ, उस तरफ का ही सारा खेल चलता है। यह सूक्ष्म विषय अपने को ही देखना समझना है, इसमें पर की अपेक्षा नहीं है।
सम्यक्दर्शन होने पर सबसे पहले दर्शन मोहनीय ही मारा जाता है, एक समय में ही मिथ्यात्व मोहनीय समाप्त हो जाता है।
शुद्ध निश्चय नय से जीव के राग नहीं है, द्वेष नहीं है, मोह नहीं है, प्रत्यय मिथ्यात्व आदि नहीं है, कर्म और नो कर्म भी नहीं हैं। निश्चय दृष्टि से
वह कर्म और नोकर्मों से रहित है। शुद्ध ज्ञान, शुद्ध दर्शन, केवलज्ञान आदि * गुणों से समृद्ध है, सिद्ध है, शुद्ध है, नित्य है, एक है, आलम्ब रहित है वही मैं * हूँ। मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनंत ज्ञान आदि गुणों से समृद्ध हूँ। शरीर के बराबर * हूँ, नित्य हूँ, असंख्यात प्रदेशी हूँ, अमूर्त हूँ। जो भव्य जीव बारंबार इस * आत्मतत्त्व का अभ्यास करते हैं, कथन करते हैं, विचार करते हैं, भावना
करते हैं वे शीघ्र ही अविनाशी, संपूर्ण अनंत सुख से संयुक्त नौ क्षायिक लब्धि H IKARAN
रूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं।
जिसको आत्मा के विषय में विशिष्ट भ्रम होने से शरीर आदि में आत्म बुद्धि है उसे बहिरात्मा जानो। मोहमयी निद्रा से उसकी चेतना लुप्त हो गई है, वह संसार में ही परिभ्रमण करता है।
मोक्ष से प्रेम व मोक्षमार्ग जो निश्चय रत्नत्रयमयी आत्मानुभूति है, उससे प्रेम (मोह) जिसका फल संसार का नाश है। यदि शरीर का मोह हो, पर्याय बुद्धि धारकर शरीर आदि सुख के लिये मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य का सेवन करे तो ऐसा जीव मोहनीय कर्म को बांधता है जिससे अनंत संसार में रुलना पड़ता है।
शरीर, धन, सुख-दु:ख अथवा शत्रु-मित्र जन यह कुछ भी जीव के नहीं हैं। उपयोगात्मक आत्मा धुव है, जो ऐसा जानकर विशुद्ध आत्मा होता हुआ, परम आत्मा का ध्यान करता है, वह मोह का क्षय करता है।
___ जो मोह ग्रन्थि को नष्ट करके, राग-द्वेष का क्षय करके, सुख-दुःख में सम होता हुआ श्रमणता में परिणमित होता है वह अक्षय सुख को प्राप्त करता है।
प्रश्न-इस अक्षय सुख को प्राप्त करने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंमोह दंसन न्यानं, चरनं तव सहाव इस्ट च । जदि अनिस्ट मोहंधं, अनिस्ट संसार सरनि वीयम्मि ॥ ३७७ ॥ मोहं परमप्पानं, मोहं न्यान परंपराइ सौष्याई। जदि मोहं पज्जावं, पज्जय रतं संसार दुष्य वीयम्मि ॥ ३७८ ॥
अन्वयार्थ - (मोहं दंसन न्यानं) सम्यकदर्शन तथा सम्यज्ञान की इष्टता, मोह (चरनं तव सहाव इस्टं च) सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप तथा अपने आत्म स्वभाव का प्रेम परम हितकारी है (जदि अनिस्ट मोहंध) यदि आत्मा के अहितकारी, अनिष्ट कार्यों में मोहांध हो जावे तो (अनिस्ट संसार सरनि वीयम्मि) इस दु:खदायी अनिष्ट संसार भ्रमण का बीज बोना है।
(मोहं परमप्पानं) अपने परमात्म स्वरूप का मोह (मोहं न्यान परंपराइ सौष्याई) केवलज्ञान स्वभाव का मोह परंपरा से अक्षय सुख को देने वाला है (जदि मोहं पज्जावं) यदि पर्याय में मोह किया तो (पज्जय रत्तं संसार दुष्य
* * * *
层层层出长长
२१४
*