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________________ 火尔克·章返京返系些常常 -*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी वीयम्मि) पर्याय में रत होने से संसार के दुःख का बीज बोना है फिर अक्षय सुख मिलने वाला नहीं है। विशेषार्थ सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र, सम्यक्तप यह चार आराधनायें मोक्षमार्ग स्वरूप अक्षय सुख को देने वाली हैं, जो भव्यजीव अपने स्वभाव की इष्टता से इन चार आराधनाओं का आराधन करता है, वह अक्षय सुख पाता है, यदि संसार की वासना के मोह में अंधा हो गया तो संसार भ्रमण का ही बीज बोना है। - परमात्म पद, सिद्धपद, केवलज्ञान स्वभाव, स्व स्वरूप का मोह यद्यपि शुभराग है परंतु परंपरा शुद्धोपयोगमयी वीतराग भाव में पहुंचाने वाला परम कल्याणकारी परमसुख को देने वाला है; जबकि शरीर का राग मोहांध बनाकर विषय व कषायों में उलझाकर हिंसक कार्यों को करने वाला है जो संसार के दुःखों का बीज है। जो आत्म स्वरूप को नहीं जानता उसकी आत्मा में अवस्थिति नहीं हो सकती और ऐसा होने से प्राणी शरीर और आत्मा के स्वरूप को भिन्न करने में मूढ़ता को प्राप्त होता है अर्थात् शरीर को ही आत्मा मान लेता है। शरीर और आत्मा का भेदज्ञान न होने से आत्मा की उपलब्धि नहीं होती, आत्मा की उपलब्धि न होने से आत्मज्ञान भी नहीं होता, फिर सुख कैसे मिले ? अतः मुमुक्षुजनों को सबसे पहले समस्त पर पदार्थों की पर्यायों के कल्पना जाल से रहित आत्मा का सम्यक्रूप से निश्चय करना चाहिये । इसके लिये सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप रूप चार आराधनाओं का आराधन करना चाहिये। इसी से अक्षय सुख, परम सुख, परमानंद की प्राप्ति होती है। जो मोह मल का क्षय करके, विषयों से विरक्त होकर, मन का निरोध करके स्वभाव में समवस्थित है, वह आत्मा का ध्यान करने वाला है, वही परम सुख को प्राप्त होता है। अपने आत्मा के विचार में निपुण राग रहित जीवों के द्वारा निर्दोष श्रुतज्ञान से भी आत्मा केवलज्ञान के समान जाना जाता है। इन्द्रियों को अपने विषयों से रोककर आत्म ध्यान का अभ्यास करने वाले निर्विकल्प चित्त ध्याता को आत्मा का वह रूप जो परमसुख परमशांति परमानंदमयी रत्नत्रय स्वरूप है, वस्तुतः २१५ गाथा ३७९ - स्पष्ट प्रतिभासित होता है, साक्षात् अनुभव में आता है। प्रश्न- ऐसा कैसे अनुभव में आता होगा ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - आनन्दं परमानन्दं परमप्या परम भाव दरसेई । " हितमित न्यान सहावं, ममल सहावेन निव्वुए जंति ॥ ३७९ ।। अन्वयार्थ (आनन्दं परमानन्दं) आनंद ही आनंद परमानंद (परमप्पा परम भाव दरसेई) परमात्मा परमभाव दिखता है, अनुभव में आता है (हितमित न्यान सहावं ) यही इष्ट प्रिय है, ऐसे ज्ञान स्वभाव की लगन रुचि होने से (ममल सहावेन निव्वुए जंति) ममल स्वभाव में लीन होने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। - विशेषार्थ अलौकिक, अवक्तव्य, अतीन्द्रिय अनुभूति का विषय इतना ही कहा जा सकता है कि उस अनुभव में आनंद ही आनंद परमानंद होता है। अपना परमात्म स्वरूप परम पारिणामिक भाव दिखाई देता है, यही इष्ट और प्रिय है, ऐसे ज्ञान स्वभाव की लगन रुचि होने से ममल स्वभाव में लीन रहने पर निर्वाण की प्राप्ति होती है। स्वानुभूति के काल में अनंत गुण सागर आत्मा अपने आनंद आदि गुणों की चमत्कारिक स्वाभाविक पर्यायों में भ्रमण करता हुआ प्रगट होता है वह निर्विकल्प दशा अद्भुत है, वचनातीत है ऐसी दशा की स्थिरता होने पर निर्वाण की प्राप्ति होती है। पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म तत्त्व पर दृष्टि करने से उसी के • आलंबन से ऐसी पूर्णता प्रगट होती है। अपने परमात्म स्वरूप परम पारिणामिक भाव का दर्शन होता है, अतीन्द्रिय आनंद की धारा बहती है। पूर्ण चैतन्य चन्द्र को स्थिरता पूर्वक निहारने, अपने ममल स्वभाव में लीन होने से निर्वाण की प्राप्ति होती है। अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ आत्मा सर्व बाधा रहित और सम्पूर्ण आत्मा में सर्व प्रकार के परिपूर्ण सौख्य तथा ज्ञान से समृद्ध वर्तता हुआ, परम सुख को प्राप्त करता है। प्रश्न- ऐसे आनंद परमानंद को प्राप्त करने के लिये क्या करना चाहिये ? 临
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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