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2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
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अरस अरूपी ज्ञानानंद स्वभावी परमात्मा हूँ, ऐसे मोह के सहकार से * परमात्म पद की प्राप्ति होती है (जदि कल इस्ट विमोह) यदि शरीर की इष्टता,
संसारी दृष्टि रही, शरीरादि को अपना माना, इनमें मोहित रहे तो (पुग्गल * सभाव नंतनंताई) अनंतानंत काल तक पुद्गल स्वभाव में ही रहना पड़ेगा, पृथ्वी आदि स्थावर काय मिलेगी।
विशेषार्थ- मोह-प्रेम, स्नेह, मान्यता, अपनत्व, इष्टता को भी कहते हैं । अज्ञान जनित मोह संसार परिभ्रमण का कारण है, ज्ञान पूर्वक अपने आत्म स्वभाव का बहुमान, उत्साह, प्रेम, इष्टता मुक्ति का कारण है।
मोह का प्रमाण यह है कि जैसा मानो, वैसा होवे । सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक अपने आत्मस्वरूप का बहुमान होवे कि मैं आत्मा परमात्मा लोकालोक प्रकाशक देवाधिदेव अनंत चतुष्टय का धारी केवलज्ञान स्वभावी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ और इसी मान्यता में दृढ़ स्थित हो जाओ तो केवलज्ञान अरिहंत पद प्रगट हो जावे; यदि संसारी वस्तु शरीर धन परिवार आदि में मोह किया, इनको इष्ट माना तो चारों गति रूप संसार में ही परिभ्रमण करना होगा।
आत्मा ज्ञान प्रमाण है और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण कहा है तथा ज्ञेय लोकालोक है अत: ज्ञान सर्वव्यापी है। जिनदेव सर्वव्यापी हैं अत: जगत के सब पदार्थ जिनवर परमात्मा में समाये हुए हैं; क्योंकि परमात्मा ज्ञानमय हैं और वे सर्व पदार्थ ज्ञान के विषय हैं।
यह आत्मा कर्मों से रहित हुआ जिस कारण से लोक और अलोक को भी जानता है, उस कारण से उसे सर्वगत परमात्मा कहते हैं।
___ मैं एक अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं निश्चय दृष्टि से शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ. योगियों के ज्ञानगम्य हूँ, कर्मों के संयोग से होने वाले सब भाव मुझसे सर्वथा भिन्न हैं।
जो परमात्मा है वही मैं हूँ, जो मैं हूँ वही परमात्मा है इसलिये मैं ही मेरे द्वारा उपासना किये जाने योग्य हूँ, दूसरा कोई मेरा उपास्य नहीं है, इस प्रकार का मोह और परममोह मुक्ति का कारण है। शरीरों में आत्मबुद्धि होने
से मेरा पुत्र, मेरी पनि इत्यादि कल्पनायें उत्पन्न होती हैं। शरीर में आत्म *बुद्धि का होना ही संसार के दु:ख का मूल है अत: उसे छोड़कर बाह्य विषयों
में, इन्द्रियों के व्यापार को रोकते हुए अंतरंग में अर्थात् अपनी आत्मा में * प्रवेश करो।
गाथा-३७५,३७६ ********** मोहनीय कर्म के उदय रहते हुए इस जीव को रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं होती है, दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय के क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व, वीतराग यथाख्यात चारित्र होता है तब ही अन्य ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय कर्म का क्षय होकर परमात्म पद प्रगट होता है।
यह मोह ही आत्मीक स्वभाव का मुख्य घातक है, संसार का मोह, इन्द्रिय विषयों का मोह, प्रतिष्ठा पाने का मोह, स्त्री, पुत्र, धनादि का मोह इस जीव को बावला बना देता है जिससे यह चारों ही गतियों में बार-बार भ्रमण किया करता है।
मोह भी दो प्रकार का है - १. प्रशस्त मोह, २. अप्रशस्त मोह ।
प्रशस्त मोह उसे कहते हैं,जो सम्यक्दर्शन सहित अपने आत्म कल्याण की भावना में रत रहता है। शुद्धोपयोग की साधना और वैसे ही निमित्तों में प्रेम करता है, अपना पूरा उपयोग धर्म ध्यान में लगाता है।
अप्रशस्त मोह उसे कहते हैं जिससे शरीर, धन, परिवार, संसार के विषय भोगों में मोह किया जावे, शरीररूप ही मैं हूँ ऐसा मानकर मिथ्यात्व कषाय आदि में लगा रहे यह दुर्गति का कारण है।
प्रश्न-इस मोह की स्थिति क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंमोहं दंसन सुद्धं, सुद्ध न्यानं च कम्म षिपिऊनं । जदिपज्जय मोह सहावं, पज्जायं लिंति नंतनंताई॥३७५॥ मोहं न्यान मइओ, इस्टं मोहं च विगत संसारे । जदि कल मोह सहावं, कल सहकार नंत संसारे ॥ ३७६ ॥
अन्वयार्थ - (मोहं दंसन सुद्ध) अपने आत्म स्वरूप का मोह कि मेरा आत्मा दर्शन से शुद्ध है (सुद्ध न्यानं च कम्म षिपिऊनं) ज्ञान से शुद्ध है, इस शुद्ध दर्शन, शुद्ध ज्ञान के मोह से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं और अनंत चतुष्टयमयी परमात्म स्वरूप केवलज्ञान प्रगट हो जाता है (जदि पज्जय मोह सहावं) यदि पर्याय के स्वभाव में मोह किया अर्थात् संसार, शरीर, धन, परिवार के मोह में फंसे रहे तो (पज्जायं लिंति नंतनंताई) अनंतानंत पर्यायों को धारण करना पड़ेगा।
(मोहं न्यान मइओ) ज्ञानमयी निज शुद्धात्म स्वभाव का मोह अर्थात्
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