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________________ --SHES *-* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी जो कर्म आत्मा के ज्ञानादि अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त हों उन्हें घातिया कर्म कहते हैं, इनमें मोहनीय कर्म सबका राजा है। प्रश्न-ज्ञानोपयोग से ज्ञानावरण और दर्शनोपयोग से दर्शनावरण * कर्म का बंध और क्षय होता है? फिर यह मोहनीय कर्म क्या है, इसका * बंध और क्षय कैसे होता है? समाधान - जिस कर्म के उदय से अन्य पदार्थों में मोहित हो जायें, अपने शुद्ध स्वरूप का भान न कर सकें और न स्वरूप में स्थिर हो सकें उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। अपने आत्म स्वरूप की विस्मृति रूप अज्ञान दशा में पर में अपनत्व मानना मोह है, इसी से राग-द्वेष होते हैं, जो मोहनीय कर्म बंध के कारण हैं । जो उपयोगमय जीव विविध विषयों को प्राप्त कर मोह करता है, द्वेष करता है, राग करता है वह उनके साथ बंध को प्राप्त होता है। जीव जिस भाव से आगत पदार्थ को देखता जानता है, उसी से राग करने लगता है, ऐसा करने से कर्म को बांधता है। स्पर्श आदि से पुद्गलों का बंध होता है और राग आदि से जीव का बंध होता है और जीव तथा पुद्गलों के परस्पर परिणाम के निमित्त से जो परस्पर में विशिष्टतर अवगाह है वह पुद्गल जीवात्मक बंध कहा है। रागी आत्मा नवीन कर्मों को बांधता है और राग रहित आत्मा कर्मों से मुक्त होता है । जिस जीव को भेदज्ञान सम्यक्दर्शन पूर्वक निज सत्ता स्वरूप आत्मतत्त्व का बोध हो जाता है तथा अपने परमात्म स्वरूप का बहुमान होने पर, पर पदार्थों से दृष्टि हटाकर अपने स्वभाव में लीन होता है, वह इस मोहनीय कर्म को क्षयकर अनंत चतुष्टयमयी निज परमात्म पद को प्राप्त करता है। इसके लिये निम्न प्रकार समझा जा सकता है - आत्मा के स्वाभाविक गुण प्रमुख अनंत चतुष्टय - अनंत चतुष्टय - अनंतदर्शन अनंतज्ञान अनंतसुख अनंतवीर्य शुद्ध पर्याय - केवलदर्शन केवलज्ञान परमानंद परमात्म शक्ति * कर्मावरण - दर्शनावरण ज्ञानावरण मोहनीय अन्तराय * अशुद्ध पर्याय ९भेदरूप ५भेदरूप २८ भेदरूप ५भेदरूप वर्तमान जीव की स्थिति - चित्त बुद्धि मन अहं 22 (अंत:करण चतुष्टय) इनके कार्य - धारणा निर्णय मान्यता विभ्रम ******* **** गाथा-३७३, ३७४********** अब यहाँ से पलटकर ऊर्ध्वमुखी होने पर इनसे छुटकारा हो सकता है। मान्यता रूपी मन को यदि अपने परमात्म स्वरूप में लगाया जाये तो मोहनीय कर्म का क्षय होकर परमात्म पद की प्राप्ति होगी और यदि संसारी व्यामोह में फंसा रहा तो संसार परिभ्रमण ही करना होगा। मोह सरीखा प्रबल शत्रु यदि, इस जग बीच न दिखलाये। तो यह अपना आतम सचमुच,परमातम ही बन जाये॥ लेकिन मोहबली ने डाली, हमको ऐसी हथकड़ियां। टूट नहीं पाती हैं हमसे, चारों गतियों की कड़ियां ॥ मोह करो तो रत्नत्रय से,रेतप से तुम मोह करो। मोह करो अपने आतम से, परमातम से मोह करो॥ लेकिन यदि अंधे होकर तम, रागों में फंस जाओगे। जन्म मरण की हथकड़ियों से,कभी उबरन पाओगे। प्रश्न- इस मोह की धारा को कैसे मोड़ा जाये, जिससे संसार परिभ्रमण से बच सके। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - मोहं पमान उत्तं, अप्पा परमप्प लोक लोकं च । जदि सरनि भाव मोहंधं,चौ गइ संसार सरनि मोहं च ॥ ३७३ ॥ मोहं च परम मोई, न्यानं अन्मोय मोह सहकारं । जदि कल इस्ट विमोहं, पुग्गल सभाव नंतनंताई ।। ३७४ ।। अन्वयार्थ - (मोहं पमान उत्तं) मोह के प्रमाण को कहते हैं, जैसा मानो वैसा होवे (अप्पा परमप्प लोक लोकं च) मैं आत्मा परमात्मा लोकालोक को देखने-जानने वाला ज्ञायक स्वभावी भगवान आत्मा हूँ ऐसा मानो तो संसार परिभ्रमण से छूट जाओ (जदि सरनि भाव मोहंधं) यदि परिभ्रमण के भावों में मोहांध होते हो अर्थात् धन शरीर परिवार में अपनत्व, मोह करते हो तो (चौ गइ संसार सरनि मोहं च) इस मोह से संसार में चारों गतियों में भ्रमण करना पड़ेगा। (मोहं च परम मोह) मोह करना है तो खूब मोह करो, मोह और परम मोह करो (न्यानं अन्मोय मोह सहकार) बस अपने ज्ञान स्वभाव का ही मोह करो कि मैं केवलज्ञान स्वभावी सर्वज्ञ परमात्मा हूँ । ज्ञानमात्र चेतन सत्ता -E-E E-ME E- २१२
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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