________________
9-5-19-5
गाथा-३७२-H-HINE
15-16--15:
5
*****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी व्यंतर आदि कुदेव योनि में जायेगा।
ज्ञान, संयम आत्माश्रित हैं, पराश्रित नहीं, यह जानते हुए ज्ञानी नित्य 2 सहज ज्ञानपुंज स्वभाव में स्वावलंबन से स्थिर रहते हैं। भगवान आत्मा सदा
अंतर्मुख है। अति सूक्ष्म, अपूर्व, निरंजन और निज बोध का आधारभूत ऐसा कारण परमात्मा है। उसका सर्वथा, सहज अंतर्मुख, अवलोकन द्वारा मुनिराज जो अनुभव करते हैं, उसे भगवान ने संवर और आलोचना कहा है।
प्रश्न - दर्शनोपयोग की सही स्थिति क्या है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दंसन परिनै उत्तं, अनंत चतुस्टै ममल सहकारं । आनन्दं परमानन्दं, दंसन धरनं च मुक्ति गमनं च ।। ३७२॥
अन्वयार्थ - (दंसन परिनै उत्तं) दर्शनोपयोग के परिणमन को कहते हैं (अनंत चतुस्टै ममल सहकार) ममल स्वभाव में रत होने से अनंत चतुष्टय स्वभाव अरिहंत पद की प्राप्ति होती है (आनन्दं परमानन्द) हमेशा आनंद परमानंद में रहते हैं (दंसन धरनं च मुक्ति गमनं च) दर्शनोपयोग की सही स्थिति मोक्ष गमन का हेतु है।
विशेषार्थ - सम्यक्दर्शन बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान बिना चारित्र नहीं, चारित्र बिना ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय नहीं, कर्मों के क्षय बिना अरिहंत परमात्मा पद नहीं और परमात्म पद बिना संसार जन्म-मरण परिभ्रमण का अंत नहीं।
दर्शनोपयोग सम्यक्चारित्र की स्थिति का मूल आधार है। दर्शनोपयोग का पर पर्याय की तरफ होना ही कर्माश्रव का कारण है। दर्शनोपयोग का स्व स्वरूप की तरफ होना कर्मों के संवर और निर्जरा का कारण है तथा स्व स्वभाव ममल स्वभाव में रत होने, एक मुहूर्त अड़तालीस मिनिट एकाग्र लीन हो जाने से ही सारे घातिया कर्मों का क्षय और अनंत चतुष्टय स्वरूप अरिहंत परमात्म पद की प्राप्ति हो जाती है, जहाँ हमेशा आनंद परमानंद में रहते हैं और इसी से मोक्ष सिद्ध पद की प्राप्ति होती है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म का बंध दसवें गुणस्थान तक होता है और उदय बारहवें गुणस्थान तक चलता है । मोहनीय कर्म के क्षय होने के बाद ही इन ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का क्षय होता है तभी केवलज्ञान
प्रगट होता है।
आत्मा निश्चय नय से भावप्राणों को और व्यवहार नय से द्रव्यप्राणों को धारण करने से जीव है । चिदात्मक अथवा चित् शक्ति से युक्त होने से चेतयिता है, उपयोग से विशिष्ट है। अपने भाव कर्मों और द्रव्यकर्मों के आश्रव बंध और निर्जरा मोक्ष में स्वयं समर्थ होने से प्रभु है। निश्चय नय से पौद्गलिक कर्मों के निमित्त से होने वाले आत्म परिणामों का और व्यवहार नय से आत्म परिणामों के निमित्त से होने वाले पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है। निश्चय नय से शुभ-अशुभ कर्मों के निमित्त से होने वाले सुख-दुःख परिणामों का और व्यवहार नय से शुभ-अशुभ कर्मों के द्वारा निष्पादित इष्ट-अनिष्ट विषयों का भोक्ता है। निश्चय नय से लोकाकाश के बराबर असंख्यात प्रदेशी होने पर भी नामकर्म के द्वारा रचित छोटे या बड़े शरीर में रहने से व्यवहार नय से शरीर के बराबर है।
व्यवहार नय से कर्मों के साथ एकत्व होने से मूर्त होते हुए भी मूर्त नहीं है। निश्चय नय से पुद्गल परिणामों के अनुरूप चैतन्य परिणाम रूप भावकर्म से तथा व्यवहार नय से चैतन्य परिणामों के अनुरूप द्रव्य कर्मों से संयुक्त है।
संसारी जीव जब कर्म मल से छूट जाता है तो ऊपर लोक के अंत में जाकर सर्वज्ञ सर्वदर्शी अतीन्द्रिय अनंत सुख को प्राप्त करता है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय घाति कर्म हैं क्योंकि जीव के गुणों का घात करते हैं, इनमें ज्ञानावरण की पांच, दर्शनावरण की नौ, मोहनीय की अट्ठाईस और अंतराय कर्म की पांच उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं यह सैंतालीस प्रकृतियां हैं।
केवल ज्ञानावरण, केवल दर्शनावरण तथा पांचों निद्रा, अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभ यह बारह कषाय और मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व यह इक्कीस प्रकृतियां सर्वघाती हैं। सम्यमिथ्यात्व का बंध नहीं होता, उदय और सत्व होता है।
__ मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय यह चार ज्ञानावरण, चक्षु, अचक्षु, अवधि यह तीन दर्शनावरण, सम्यक्त्व प्रकृति, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ यह चार कषाय और हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, पुरुष वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद यह नौ नोकषाय, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य यह पांच अंतराय यह कुल छब्बीस देशघाती प्रकृतियां हैं।
४
-
多层立法斗答卷。
--------
२११