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गाथा-३७१*-*-*-*-*-*-*-*
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
(दंसन अरूव रूवं) दर्शनोपयोग यद्यपि निराकार, निर्विकल्प है तथापि वह रूपी और अरूपी दोनों पदार्थों को देखता है (रूवातीतं च निम्मलं ममलं) * आत्मा रूपातीत निर्मल और ममल स्वभावी है (जदि कल इस्ट सुभावं) यदि
वह शरीरादि रूपी पदार्थों को इष्ट मानकर उनके स्वभाव को देखता है तो * (दंसन आवरन नंत संसारे) दर्शनावरण कर्म का बंध होकर अनंत संसार में भ्रमण होगा।
विशेषार्थ-दर्शनोपयोग से ममल स्वभाव का दर्शन करना चाहिये, यही परमात्म स्वरूप अपना इष्ट है । सम्यकज्ञान के द्वारा दर्शनोपयोग को शुद्ध करके द्रव्यदृष्टि बनाना चाहिये, इसके विपरीत यदि दर्शनोपयोग को संसारी भावों में लगाया तो इससे दर्शनावरण का बंध होगा व संसार में कष्ट उठाना पड़ेगा।
दर्शनोपयोग यद्यपि निराकार निर्विकल्प है तथापि वह रूपी और अरूपी दोनों पदार्थों को देखता है, अपना स्वरूप रूपातीत निर्मल और ममल स्वभावी है, इसी में दर्शनोपयोग के लगने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। यदि शरीरादि को इष्ट मानकर इनके स्वभाव को देखने में दर्शनोपयोग को लगाया तो दर्शनावरण कर्म का बंध होकर अनंत संसार भ्रमण करना पड़ेगा। मतिज्ञान पूर्वक श्रुतज्ञान होता है, श्रुतज्ञान से शुद्ध आत्मा का अनुभव होता है, यह मतिज्ञान दर्शनोपयोग पूर्वक होता है। अध्यात्म शास्त्र सुनने, विचारने व मनन करने की रुचि होते ही इन्द्रियों से व मन से काम लिया जाता है तब दर्शनोपयोग प्रथम सहकारी है।
सम्यक्दर्शन पूर्वक सम्यक्ज्ञान होने पर दर्शनोपयोग की शुद्धि द्रव्यदृष्टि द्वारा की जाती है, जिससे रूपी-अरूपी पदार्थ का भ्रम भेद मिट जाता है। वस्तु स्वरूप जानने पर ममल स्वभाव ही दिखता है, इसी से सारे कर्म क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है।
जब शुद्धात्म स्वरूप के अनुभव में उपयोग तन्मय होता है तब कर्मों का करने वाला अज्ञान भाव नहीं है। जब इसके विपरीत होता है अर्थात्
संसार शरीरादि की तरफ उपयोग लगता है तब जीव का उपयोग अज्ञान भाव * के कारण कर्मों को बांधने वाला होता है।
प्रश्न - इतनी सूक्ष्म दृष्टि के लिये क्या करना चाहिये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते है -
इस्ट संजोयं दिस्टं, इस्टं विपिऊन कम्म तिविहेन । जदि अनिस्ट दिस्ट सहकारं, दंसन आवरन वितरं पत्तं ।। ३७१ ॥
अन्वयार्थ - (इस्ट संजोयं दिस्टं) दृष्टि में इष्ट निज स्वरूप को ही संजोओ अर्थात् अपने ममल स्वभाव को ही निरंतर देखो (इस्टं षिपिऊन कम्म तिविहेन) अपने इष्ट की दृष्टि होने से तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं (जदि अनिस्ट दिस्ट सहकारं) यदि दृष्टि में अनिष्ट का सहकार किया अर्थात् पर पर्याय संसार शरीरादि को देखा तो (दंसन आवरन विंतरं पत्तं) दर्शनावरण कर्म का बंध होकर व्यंतर आदि देवगति में जाना पड़ेगा क्योंकि बाहर में त्यागी व्रती संयमी बने बैठे हो।
विशेषार्थ- आत्म तत्त्व तो अत्यंत सूक्ष्म है, जो मन वाणी इन्द्रियों के परे अगोचर है इसके लिये तो अपनी दृष्टि को सूक्ष्म करना होगा अर्थात् इन सब पर पर्याय से हटाकर अत्यंत सूक्ष्म निज शुद्धात्मा को अनुभव में लेना होगा। ऐसे अपने इष्ट की दृष्टि होने से तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं। यदि दृष्टि में अनिष्ट का सहकार किया अर्थात पर पर्याय संसार शरीरादि को देखा तो भले ही बाह्य में व्रत संयम का पालन कर रहे हो, त्यागी साधु बने हो परंतु विपरीत दृष्टि होने से दर्शनावरण कर्म का बंध होकर व्यंतर आदि देवगति में जाना पड़ेगा।
जब जीव निज अतीन्द्रिय आनंद स्वभाव का अनुभव करने में समर्थ होता है तब समस्त जगत का साक्षी होता है, पर वस्तु मेरी है और मैं उसका हूँ, ऐसी मान्यता छूट गई है तब सकल परद्रव्यों का ज्ञायक होता है। परमात्मा हों तो भी मैं तो उनका जानने वाला हूँ और स्त्री पुत्रादि हों, उनका भी मैं जानने वाला हूँ, वे कोई मेरे नहीं हैं।
मेरा क्या है ? कि ज्ञान और आनंद स्वरूप वह मैं हूँ, इस प्रकार निज स्वरूप का स्वयं के द्वारा अनुभव करता है और निज वस्तु से भिन्न वस्तुओं का ज्ञान रहता है तथा त्रिविध योग से जब अपने इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप में लीन होता है तब तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं।
जो राग से एकता तोड़कर निज स्वरूप को दृष्टि में ले व अनुभव करे, वह अंतरंग में साधु है। बाह्य में वस्त्र त्याग दे, पंच महाव्रत का पालन करे और दृष्टि शरीरादि संयोगी पर्याय पर रहे तो वह दर्शनावरण कर्म का बंधकर
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长多长条》关关系
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