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HHHHH श्री उपदेश शुद्ध सार जी
दंसेई तिहुवनग्गं, दसन न्यानं च अन्मोय संजुत्तं । जदिपज्जाव सुभावं, दंसन आवरन दुष्य वीयम्मि ॥ ३६७॥ दंसन विपनिक रूवं, दंसन सहकार कम्म विलयंति। जदि पज्जाये रत्तं, दंसन आवरन सरनि संसारे ॥३६८॥
अन्वयार्थ - (दंसेई तिहुवनग्गं) शुद्धोपयोग ही तीन लोक के अग्र भाग में विराजित ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप को देखता है (दंसन न्यानं च अन्मोय संजुत्तं) तथा दर्शनोपयोग ज्ञानोपयोग सहित अपने ममल स्वभाव में ही लीन रहता है (जदि पज्जाव सुभावं) यदि पर्याय के स्वभाव को देखता है (दंसन आवरन दुष्य वीयम्मि) दर्शनावरण कर्म का बंध कर दु:ख का बीज बोता है।
(दंसन षिपनिक रूवं) शुद्धोपयोग की स्थिति में सम्यक्दर्शन भी क्षायिक स्वरूप होना चाहिये (दंसन सहकार कम्म विलयंति) क्षायिक सम्यक्त्व की सहकारिता से ही कर्म विलाते, क्षय होते हैं (जदि पज्जाये रत्त) यदि पर्याय में रत रहता है तो (दंसन आवरन सरनि संसारे) दर्शनावरण कर्म का बंध होकर संसार परिभ्रमण ही करना पड़ता है।
विशेषार्थ - शुद्धोपयोग ही तीन लोक के अग्र भाग में विराजित ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप को देखता है, उसका दर्शनोपयोग तथा ज्ञानोपयोग अपने ममल स्वभाव में ही लीन रहता है फिर उसे पर पर्यायादि कुछ नहीं दिखते, यदि वह पर्याय स्वभाव को देखता है तो दर्शनावरण कर्म का बंध कर दुःख का बीज बोता है।
शुद्धोपयोग की सही स्थिति तो क्षायिक सम्यक्त्व होने पर ही बनती है, जिसमें अड़तालीस मिनिट में सब घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है फिर वहाँ नीचे आने की बात ही नहीं है। यदि उपशम आदि होने से पर्याय में रत होता है तो दर्शनावरण कर्म का बंध कर संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा।
स्वरूप में चरण करना, रमना सो चारित्र है । स्वसमय में प्रवृत्ति करना * ही शुद्धोपयोग है । दर्शन ज्ञान प्रधान वीतराग चारित्र से मोक्ष प्राप्त होता है।
शुद्ध आत्मा के श्रद्धान रूप सम्यक्त्व से विरुद्ध भाव वह मिथ्यात्व मोह 7 है और निर्विकार निश्चल चैतन्य परिणति रूपचारित्र से विरुद्ध भाव अस्थिरता *वह क्षोभ है। ***** * * ***
गाथा-३६७-३७०%EKKKK द्रव्य जिस समय जिस भाव से परिणमन करता है उस समय उस मय है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। इसलिये द्रव्य स्वभाव परिणत आत्मा शुद्धोपयोगी है तथा पर्याय परिणत आत्मा अशुद्धोपयोगी है, जो संसार परिभ्रमण का कारण है।
आत्मा सर्वथा कूटस्थ नहीं है किंतु स्थिर रहकर परिणमन करना उसका स्वभाव है इसलिये वह जैसे-जैसे भावों से परिणमित होता है वैसा-वैसा ही वह स्वयं हो जाता है। जैसे-स्फटिक मणि स्वभाव से निर्मल है तथापि जब वह लाल या काले फूल के संयोग निमित्त से परिणमित होता है, तब लाल या काला स्वयं ही हो जाता है। इसी प्रकार आत्मा स्वभाव से शुद्ध बुद्ध एक स्वरूपी होने पर व्यवहार से जब गृहस्थ दशा में सम्यक्त्व पूर्वक दान पूजादि शुभ-अशुभ मन रूप शुभयोग में और मुनिदशा में मूलगुण तथा उत्तरगुण इत्यादि शुभ अनुष्ठान रूप शुभोपयोग में परिणमित होता है तब स्वयं ही शुभ है और जब मिथ्यात्वादि पांच प्रत्यय रूप अशुभोपयोग में परिणमित होता है तब स्वयं ही अशुभ होता है तथा जैसे स्फटिक मणि अपने स्वाभाविक निर्मल रंग में परिणमित होता है तब स्वयं ही शुद्ध है, उसी प्रकार आत्मा भी जब निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोग में परिणमित होता है तब स्वयं ही शुद्ध होता है।
प्रश्न - इस दर्शनोपयोग के लिये क्या करना चाहिये?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दंसन ममल सहावं, न्यान विन्यान दंसनं सुद्धं । जं सरनि भाव सहकारं, देसन आवरन दुष्य संतत्तं ।। ३६९ ॥ दंसन अरूवरूर्व, रूवातीतं च निम्मलं ममलं । जदि कल इस्ट सुभावं, दंसन आवरन नंत संसारे ॥ ३७॥
अन्वयार्थ - (दंसन ममल सहावं) ममल स्वभाव का दर्शन करना चाहिये (न्यान विन्यान दंसनं सुद्ध) ज्ञान विज्ञान से दर्शनोपयोग शुद्ध होता है अर्थात् सम्यक्ज्ञान से दर्शनोपयोग शुद्ध होता है (जं सरनि भाव सहकार) यदि दर्शनोपयोग संसार के भावों में अनुरक्त होता है (दंसन आवरन दुष्य संतत्तं) तो दर्शनावरण कर्म का बंधकर दु:खों से संतप्त होता है अर्थात् दुःख भोगना पड़ते हैं।
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