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गाथा-३६५,३६६HHHHEA
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*****-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
परमाणु रूप है तो चक्षु इन्द्रिय द्वारा जो पौद्गलिक जगत दिखाई देता है, यह सब भ्रांति है अर्थात् पुद्गल परमाणुओं का स्कंध रूप परिणमन है,
जो सब नाशवान धूल का ढेर है फिर ज्ञानी को चक्षु द्वारा भी वस्तु स्वरूप * ममल स्वभाव दिखाई देता है तथा मन आदि द्वारा जो सूक्ष्म पौद्गलिक
परिणमन दिखाई देता है । चखना, सूंघना, सुनना, स्पर्श करना, शुभाशुभ भाव तथा संकल्प-विकल्प होना, यह सब क्या है ? यह सब भ्रम है । जैसे सिनेमा के परदे पर चलचित्र दिखाई देते हैं परंतु उनमें क्या है ? उनमें कुछ नहीं है। सूक्ष्म तरंगें आती हैं और वह नाना प्रकार से दिखाई देती हैं, यह सब भ्रम माया कर्मावरण है, यथार्थ में है कुछ नहीं।
जिसका यह भ्रम टूट जाता है उसके अचक्षुदर्शन की शुद्धि हो जाती है फिर उसे शुद्ध वस्तु स्वरूप दिखाई देता है और इनसे चलने वाला सारा कर्मावरण अपने आप क्षय हो जाता है।
उपरोक्त प्रकार से द्रव्य स्वयं ही अपनी अनंत शक्ति रूप संपदा से परिपूर्ण है, स्वयं ही अपना कार्य करने के लिये समर्थ है, उसे बाह्य सामग्री कोई सहायता नहीं कर सकती इसलिये केवलज्ञान प्राप्ति के इच्छुक आत्मा को बाह्य सामग्री की अपेक्षा रखकर परतंत्र होना निरर्थक है। शुद्धोपयोग में लीन आत्मा स्वयं ही केवलज्ञान प्राप्त करता है।
आत्मा को ज्ञान और सुखरूप परिणमित होने में इन्द्रियादिक पर निमित्तों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि जिसका लक्षण अर्थात् स्वरूप स्व-पर प्रकाशकता है ऐसा ज्ञान और जिसका लक्षण अनाकुलता है ऐसा सुख आत्मा का ही स्वभाव है।
प्रश्न-इस दर्शनोपयोग की स्थिति क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंदसति लोय अवलोयं, दंसन दंसेइ मुक्ति सहकारं। पज्जावं पर उत्त, दसन आवरन सरनि संसारे ॥३६५॥ दंसन अनन्त रूवं, दसन दिड्डी च कम्म विपिऊन । जदि पज्जय अनुरतं, दंसन आवरन बेंद्रिया पत्तं ॥ ३६६ ॥
अन्वयार्थ - (दसैंति लोय अवलोयं) दर्शनोपयोग लोक अलोक को * देख सकता है (दंसन दंसेइ मुक्ति सहकारं) दर्शनोपयोग से अपने ममल * ** ****
स्वभाव को देखना मोक्षमार्ग में सहकारी है (पज्जावं पर उत्तं) पर्याय, पर
कही गई है उसको देखने से (दंसन आवरन सरनि संसारे) दर्शनावरण कर्म 8 का बंध होकर संसार परिभ्रमण करना पड़ेगा।
(दंसन अनन्त रूव) दर्शन अनंत दर्शन स्वरूप है (दंसन दिवी च कम्म विपिऊन) अनंत दर्शन स्वरूप की दृष्टि होने से कर्म क्षय होते हैं (जदिपज्जय अनुरत्तं) यदि दृष्टि पर्याय में अनुरक्त रहती है (दंसन आवरन बेंद्रिया पत्तं) तो दर्शनावरण कर्म से दो इन्द्रिय पर्याय में जाना पड़ेगा।
विशेषार्थ - दर्शनोपयोग की स्थिति बहुत सूक्ष्म है, दर्शनोपयोग पर ही मुक्ति और संसार परिभ्रमण निर्भर है। दर्शनोपयोग की अपने ममल स्वभाव में स्थिरता होने से मुक्तिमार्ग बनता है और पर्याय पर दृष्टि होने से दर्शनावरण कर्म का बंध होकर संसार परिभ्रमण होता है।
सम्यकचारित्र का आधार दर्शनोपयोग है। दर्शन ज्ञान उपयोग का स्वरूप में एकाग्र होना ही शुद्धोपयोग है । दर्शन, अनंतदर्शन, केवलदर्शन स्वरूप र है, जिसमें लोकालोक को देखने की शक्ति है । जब यह अपने अनंत चतुष्टय
स्वरूप को ही देखता है तभी सर्व कर्म क्षय होते हैं, यदि पर्याय में लीन रहता है, पर्याय को देखता है तो दर्शनावरण कर्म का बंध करके दो इन्द्रिय पर्याय में जन्म लेना पड़ेगा।
कर्म आश्रव और कर्म क्षय का मूल आधार दृष्टि है, एक मुहूर्त अड़तालीस मिनिट स्वरूप में लीन होने पर सारे घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है तथा एक समय की पर पर्याय पर दृष्टि होने से असंख्यात कर्मों का आश्रव बंध होता है।
धर्म से परिणमित स्वरूप वाला आत्मा यदि शुद्धोपयोग में युक्त हो तो मोक्ष सुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्गादि संसार को प्राप्त करता है। जब यह आत्मा किंचित् मात्र भी धर्म परिणति को प्राप्त न करता हुआ अशुभोपयोग परिणति का अवलंबन करता है तब तिर्यंचादि दुर्गतियों में जाता है।
प्रश्न - जब शुद्धोपयोग रूप स्थिति बनने लगी फिर संसार परिभ्रमण कैसे होगा?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
मना..
者会苦长动层层司法考卷
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