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________________ 萃克·章返京惠常常常 -*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी तो दर्शनावरण कर्म का बंध होगा। प्रश्न- चक्षु इन्द्रिय से अतीन्द्रिय आत्मा ममल स्वभाव को देखा ही नहीं जा सकता, तो फिर कैसे देखना चाहिये ? चक्षु इन्द्रिय तो रूपी पदार्थ पुद्गलादि को ही देखती है ? समाधान- इसके लिये चक्षु दर्शन की शुद्धि की जाये, द्रव्य दृष्टि से वस्तु स्वरूप को देखा जाये तो चक्षु इन्द्रिय में भी ममल स्वभाव ही दिखेगा। प्रश्न- चक्षुदर्शन की शुद्धि द्रव्यदृष्टि कैसे की जाये ? समाधान जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं, जिनमें धर्म, अधर्म, आकाश, काल अपने द्रव्य, गुण, पर्याय से सर्वथा शुद्ध हैं। दो द्रव्य जीव और पुद्गल ही अपने द्रव्य, गुण से शुद्ध होते हुए पर्याय से अशुद्ध हैं और इस अशुद्ध पर्यायी परिणमन में एक दूसरे का अनादि निमित्तनैमित्तिक संबंध है । अज्ञानी जीव को इस बात का बोध न होने से वह यह पर्यायी परिणमन रूपी पदार्थों को ही देखा करता है, इससे कर्मावरण होकर संसार परिभ्रमण चलता है। जब दोनों द्रव्यों को उनके स्वभाव से जाना जाये कि जीव द्रव्य स्वभाव से सिद्ध के समान शुद्ध है और पुद्गल द्रव्य स्वभाव से शुद्ध परमाणु रूप है। यह दिखने वाला पर्यायी परिणमन भ्रांति है, इस द्रव्य दृष्टि से चक्षुदर्शन की शुद्धि होती है। जब यह ज्ञान हो जाता है तो चक्षु इंद्रिय में भी ममल स्वभाव ही दिखता है । प्रश्न- फिर इससे क्या होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - दंसेइ मोष मर्ग, मल रहिओ सुद्ध दंसनं ममलं । असत्यं असरन तिक्तं, दंसन सहकार कम्म विलयंति ॥ ३६३ ॥ अन्वयार्थ - (दंसेइ मोष मग्गं) मोक्ष का मार्ग दिखाई देने लगता है (मल रहिओ सुद्ध दंसनं ममलं) मल रहित शुद्ध ममल स्वभाव का दर्शन होता है (असत्यं असरन तिक्तं ) असत्य अशरण संसार परिभ्रमण छूट जाता है। (दंसन सहकार कम्म विलयंति) ऐसे दर्शनोपयोग की साधना से कर्म क्षय हो जाते हैं । विशेषार्थ-चक्षु, अचक्षुदर्शन की शुद्धि होने से मोक्ष का मार्ग दिखाई 器 २०७ देने लगता है। सारे रागादि कर्म मलों से रहित अपना ममल स्वभाव दिखता है। असत् अशरण संसार परिभ्रमण छूट जाता है, ऐसे दर्शनोपयोग की साधना से सब कर्म क्षय हो जाते हैं। गाथा ३६३, ३६४ अनादि काल से जो पहले कभी अनुभव में नहीं आया ऐसे अपूर्व परम अद्भुत आल्हाद रूप होने से अतिशय, आत्मा का ही आश्रय लेकर प्रवर्तमान होने से आत्मोत्पन्न, पराश्रय से निरपेक्ष होने से, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के तथा संकल्प-विकल्प के आश्रय की अपेक्षा से रहित होने से-विषयातीत, अत्यंत विलक्षण होने से अनुपम, समस्त आगामी काल में कभी भी नाश को प्राप्त न होने से अनंत और बिना ही अंतर के प्रवर्तमान होने से अविच्छिन्न सुख, शुद्धोपयोग से निष्पन्न हुए आत्मा को होता है । शुद्धोपयोगी जीव प्रतिक्षण अत्यंत शुद्धि को प्राप्त करता रहता है और इस प्रकार मोह का क्षय करके निर्विकार चेतनावान होकर, बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय में ज्ञानावरण दर्शनावरण और अंतराय का युगपद् क्षय करके समस्त ज्ञेयों को जानने वाले केवलज्ञान को प्राप्त करता है। - प्रश्न- इसमें अचक्षु दर्शन की शुद्धि कैसे हुई ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अच दंसन उत्त, सब्द सहकार न्यान विन्यानं । कम्म मल सुर्य च चिप, अचषु दर्सन दर्लए सुद्धं ।। ३६४ ।। - अन्वयार्थ - ( अचष्यं दंसन उत्तं) अचक्षु दर्शन को कहते हैं (सब्द सहकार न्यान विन्यानं) चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर अन्य इन्द्रिय व मन द्वारा सामान्यपने देखता है वह अचक्षु दर्शन है, जैसे शब्द को ग्रहण करते हुए पहले अचक्षुदर्शन होगा पीछे शब्द के संबंध का ज्ञान विज्ञान होगा (कम्म मल सुयं चषिपनं) इसकी शुद्धि होने से कर्म मल स्वयं क्षय होने लगते हैं (अचषु दर्सन दर्सए सुद्ध) मन और इन्द्रियों द्वारा जो सुनाई और दिखाई पड़ता है वह सब भ्रम है, शुद्ध वस्तु स्वरूप ही दिखाई देना यह अचक्षु दर्शन की शुद्धि है। विशेषार्थ अचक्षुदर्शन, चक्षु को छोड़कर अन्य इन्द्रिय व मन द्वारा सामान्यपने देखता है, जैसे शब्द को ग्रहण करते हुए पहले अचक्षुदर्शन होगा पीछे शब्द के संबंध का ज्ञान विज्ञान होगा। जब द्रव्य दृष्टि से वस्तु स्वरूप को जान लिया कि द्रव्य स्वभाव से जीव सिद्ध के समान शुद्ध है और पुद्गल शुद्ध - - 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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