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गाथा-३६०-३६२------
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**** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी वरन विषेसन दिस्टं, नहु दिढ असुद्धभाव अनिस्टं। इस्ट संजोय दिह, पर्जय रूवं च चषु आवरनं ।। ३६०॥
अन्वयार्थ-(चष्यं च सुद्ध भावं) चक्षु दर्शन से शुद्ध स्वभाव को देखा जाये (चष्यं च ममल दिस्टि सभावं) चक्षुदर्शन की दृष्टि अपने ममल स्वभाव पर रहे तो (संसार सरनि विरयं) संसार का परिभ्रमण छूट जाता है (पज्जय रत्तं च चषु आवरनं) यदि पर्याय में रत रहता है तो चक्षुदर्शनावरण का बंध होता है।
(वरन विषेस न दिस्टं) चक्षुदर्शन से वर्ण विशेष न देखा जाये अर्थात् जब चक्षुदर्शन की दृष्टि पुद्गलादि रूपी पदार्थ नाना प्रकार के वर्ण को नहीं देखती (नहु दिटुं असुद्ध भाव अनिस्ट) और अशुद्ध भाव शुभाशुभ विकारी भावों को भी नहीं देखती (इस्ट संजोय दिट्ठ) अपने इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप को ही देखती है,यह चक्षुदर्शन की दृष्टि मुक्तिमार्ग में सहकारी है (पर्जय रूवं च चषु आवरनं) यदि चक्षु दर्शन की दृष्टि पर्याय आदि रूपी पदार्थ को देखती है तो उससे चक्षु दर्शनावरण कर्म का बंध होगा जो संसार का कारण है।
विशेषार्थ- छद्मस्थ को दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है । दर्शनोपयोग जिस तरफ देखता है ज्ञान भी वहीं लगा रहता है। दर्शनोपयोग के चार भेद में यह पहला चक्षुदर्शन है, इसकी विशेषता यही है कि चक्षुदर्शन शुद्ध भाव और ममल स्वभाव को देखता है तो संसार परिभ्रमण से छुटकारा हो जाता है और यदि पर्याय में रत रहता है तो चक्षुदर्शनावरण कर्म का बंध होता है।
दृष्टि की विशेषता जिसमें चक्षु इन्द्रिय की सहकारिता है, यदि यह वर्ण विशेष पुद्गलादि रूप रंग नहीं देखती और अनिष्टकारी शुभाशुभ विकारीभाव भी नहीं देखती, अपने इष्ट को संजोती है अर्थात् निज शुद्धात्मा को ही देखती है तो मुक्तिमार्ग बनता है। यदि पर पर्याय और रूपी पदार्थ को देखती है तो चक्षु दर्शनावरण कर्म का बंध होता है।
प्रश्न-चक्षुदर्शन का प्रयोजन चक्षु इन्द्रिय के देखने से है या * उपयोग से है?
समाधान-चक्षुदर्शन का मूल प्रयोजन तो दर्शनोपयोग से है, उसमें में चक्षु इन्द्रिय सहकारी है क्योंकि जब तक कर्मावरण शरीरादि संयोग है तभी * तक यह भेदरूप कथन है । मूल में तो केवलदर्शन, अनंतदर्शनमयी शुद्धात्म * स्वरूप ही है। जब तक भेदरूप कर्मावरण संयोग है तब तक चक्षु इन्द्रिय भी ***** * * ***
सहकारी है, इसके द्वारा यदि संसार, संयोग शरीरादि पर्याय को ही देखने में रत रहते हैं तो उपयोग इन्हीं में लगा होने से दर्शनावरण कर्म का बंध होता है; और यदि चक्षु इन्द्रिय से वीतराग विज्ञानमयी निज स्वरूप का चिंतन करते हैं, जिनवाणी का स्वाध्याय, वीतरागता वर्द्धक स्थितियों को देखते हैं तो वैराग्य पैदा होता है, उपयोग अपने आत्म स्वभाव में लगता है, इससे मुक्ति मार्ग बनता है।
प्रश्न - चक्षुदर्शन का कैसा उपयोग किया जाये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - चष्यं ममल सहावं, दंसन न्यानेन अन्मोय संजुत्तं । अन्मोयं अन्तरय, वय आवरन दुग्गए पत्तं ॥ ३६१।। चयं च दिस्टि इस्ट, अतींदी सभाव न्यान सहकार। दंसन सुद्ध अन्मोयं, दंसन आवरन पज्जाव संदिडं । ३६२ ॥
अन्वयार्थ - (चष्यं ममल सहावं) चक्षुदर्शन का उपयोग ममल स्वभाव । 7 में होना चाहिये अर्थात् ममल स्वभाव को ही देखना चाहिये (दंसन न्यानेन
अन्मोय संजुत्तं) दर्शन और ज्ञान के आलम्बन में ही लगे रहना चाहिये (अन्मोयं अन्तरयं) यदि स्वभाव के आलंबन में अंतराय डाला, प्रमाद किया तो (चष्यं आवरन दुग्गए पत्तं) चक्षु आवरण से दुर्गति जाना पड़ेगा।
(चष्यं च दिस्टि इस्ट) चक्षुदर्शन से अपने इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप को ही देखना चाहिये (अतींदी सभाव न्यान सहकार) अतीन्द्रिय स्वभाव और ज्ञान के सहकार में ही संलग्न रहना चाहिये (दंसन सुद्ध अन्मोयं) शुद्ध स्वभाव के आश्रय ही चक्षुदर्शन को लगे रहना चाहिये (दंसन आवरन पज्जाव संदिट्ठ) यदि पर्याय की तरफ देखा, उसमें लगे रहे तो दर्शनावरण कर्म का बंध होगा।
विशेषार्थ-चक्षुदर्शन का उपयोग तो ममल स्वभाव में ही लगा रहना चाहिये, हमेशा ज्ञान दर्शन के आलंबन में ही लगे रहना चाहिये । यदि स्वभाव
के आलंबन में अंतराय डाला, प्रमाद किया तो चक्षुदर्शनावरण कर्म का बंध 6 होकर दुर्गति जाना पड़ेगा।
चक्षुदर्शन से अपने इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप को ही देखना चाहिये. अतीन्द्रिय स्वभाव और ज्ञानानुभूति में ही लगे रहना चाहिये, शुद्ध स्वभाव का
आलंबन उसी का दर्शन मोक्षमार्ग है, यदि पर्याय की तरफ देखा उसमें लगे २०६
长治长者居多长
徐永些示以示部