________________
*華克·尔惠-帘惠-常不常,
*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
तीन भेद सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं। चार भेद - अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य । चार घातिया कर्मों से यह अनंत चतुष्टय स्वरूप आवृत है, ढका है। इनमें ज्ञानावरण के क्षय से अनंतज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से अनंतदर्शन, मोहनीय के क्षय से अनंतसुख और अंतराय के क्षय से अनंतवीर्य प्रगट हो जाता है। पांच भेद - पंचज्ञान मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, जो ज्ञानावरण से आवृत हैं, मूल में दृष्टि ही इन कर्म बंधन और कर्मक्षय का कारण है। दृष्टि (उपयोग) अज्ञान मिथ्यात्व में होने से कर्मों का आस्रव बंध होता है तथा सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र होने से संवर निर्जरा होने लगती है। विशेष बात यह है कि दृष्टि स्व स्वरूप में लीन रहे तब कोई कर्मबंध नहीं होता, जब तक दृष्टि पर पर्याय की तरफ देखती है तब तक कर्मों का आस्रव बंध होता है जो गुणस्थान क्रम से जाना जाता है।
यहाँ साधक को अपनी दृष्टि (उपयोग) की संभाल रखने की ही बात है, अभी तक ज्ञानोपयोग की दृष्टि की सूक्ष्म संधि का निराकरण ज्ञानावरण कर्म के विवेचन में किया गया ।
प्रश्न- तो अब आगे दर्शनोपयोग और दर्शनावरण कर्म का स्वरूप बताइये ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
दर्सन अनन्त दर्स, दर्सन विन्यान न्यान सहकारं ।
दर्सन भेय चउक्कं दंसन दंसेड़ अप्प परमप्यं ।। ३५७ ।। चष्यं दरसति सुद्धं, अचष्य दर्सन दर्सयति सुद्धं ।
-
अवधे अवहि संजुचं, केवल दंसेड़ नंतनंताई ।। ३५८ ।। अन्वयार्थ ( दर्सन अनन्त दर्स) दर्शन, अनंत दर्शन स्वरूप है, आत्मा की विशेष शक्ति है (दर्सन विन्यान न्यान सहकारं ) दर्शन भेदविज्ञान और ज्ञान का सहकारी है (दर्सन भेय चउक्कं) दर्शन के चार भेद हैं (दंसन दंसेइ अप्प परमप्पं) दर्शन आत्मा को परमात्म स्वरूप देखता है।
(चष्यं दरसति सुद्धं ) चक्षु दर्शन सामान्यपने शुद्ध वस्तु को (अचष्य दर्सन दर्सयति सुद्धं) अचक्षु दर्शन सामान्यपने शुद्ध वस्तु को देखता है (अवधे अवहि संजुत्तं) अवधि दर्शन अवधिज्ञान के साथ रहता है ( केवल दंसेइ
"
000000000000000000000000
२०५
गाथा ३५७-३५९****
नंतनंताइं) केवलदर्शन अनंतानंत पदार्थों को देखता है।
विशेषार्थ - यहाँ दर्शन का स्वरूप और उसके भेद बताते हैं। दर्शन और ज्ञान इन भेदों से उपयोग दो प्रकार का है। उसमें दर्शन तो निर्विकल्प है और ज्ञान सविकल्प है। दर्शनोपयोग चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन, इन भेदों से चार प्रकार का होता है। इसका विशेष वर्णन - प्रथम तो आत्मा तीन लोक और तीनों कालों में रहने वाले संपूर्ण द्रव्य सामान्य को ग्रहण करने वाला जो पूर्ण निर्मल केवल दर्शन स्वभाव है उसका धारक है पश्चात् अनादि कर्म बंध के आधीन होकर चक्षु दर्शनावरण के क्षयोपशम से अर्थात् नेत्र द्वारा जो दर्शन होता है, उस दर्शन को रोकने वाले कर्म के क्षयोपशम से तथा बहिरंग द्रव्येन्द्रिय के आलम्बन से मूर्त सत्ता सामान्य को जो कि संव्यवहार से प्रत्यक्ष है तो भी निश्चय से परोक्ष रूप है। उसको एकदेश से विकल्प रहित जो देखता है वह चक्षुदर्शन है। वैसे ही स्पर्शन, रसना, घ्राण, तथा कर्णेन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम से और निज-निज बहिरंग द्रव्येन्द्रिय के आलंबन से मूर्त सत्ता सामान्य को परोक्ष रूप एकदेश से जो विकल्प रहित देखता है वह अचक्षुदर्शन है। इसी प्रकार मन इन्द्रिय के आवरण के क्षयोपशम से तथा सहकारी कारणभूत जो आठ पांखुड़ी के कमल के आकार द्रव्यमन है, उसके अवलम्बन से मूर्त तथा अमूर्त ऐसे समस्त द्रव्यों में विद्यमान सत्ता सामान्य को परोक्षरूप से विकल्प रहित जो देखता है वह मानस अचक्षुदर्शन है।
वही आत्मा जो अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से मूर्त वस्तु में प्राप्त सत्ता सामान्य को एकदेश प्रत्यक्ष विकल्प रहित देखता है वह अवधिदर्शन है तथा जो सहज शुद्ध चिदानंद एक स्वरूप का धारक परमात्मा है उसके तत्त्वज्ञान के बल से केवल दर्शनावरण के क्षय होने पर मूर्त-अमूर्त समस्त वस्तु में प्राप्त सत्ता सामान्य को सकल प्रत्यक्ष रूप से एक समय में विकल्प रहित जो देखता है उसको दर्शनावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न और ग्रहण करने योग्य केवलदर्शन जानना चाहिये ।
आगे अचक्षु दर्शन की विशेषता बताते हैं
चयं च सुद्ध भावं, चयं च ममल दिस्टि सभावं ।
संसार सरनि विरयं, पज्जय रत्तं च चषु आवरनं ॥ ३५९ ॥
管制