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श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-३५६HHHH---
पोषक होने से आत्मा के घात में निमित्त होते हैं, उनके द्वारा अज्ञानी जीव ज्ञानावरण कर्म बांधकर दु:ख का बीज बोते हैं।
प्रश्न-इस ज्ञानावरण कर्म से छूटने और मुक्त होने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंन्यानं च ममल न्यानं, न्यानं सहकार कम्म संविपर्न । पज्जा नहु पिच्छदि, न्यान सहावेन मुक्ति गमनं च ॥ ३५६ ॥
अन्वयार्थ - (न्यानं च ममल न्यानं) ज्ञान और ममलज्ञान स्वभाव ही ज्ञानावरण से छूटने मुक्त होने का उपाय है (न्यानं सहकार कम्म संषिपनं) सम्यज्ञान रूप आत्मज्ञान का अनुभव होने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं (पज्जावं नहु पिच्छदि) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कर्मजनित पर्याय पर दृष्टि नहीं रखता, पर्याय को नहीं देखता (न्यान सहावेन मुक्ति गमनं च) ज्ञान स्वभाव में लीन रहने से मुक्ति की प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ - भेदविज्ञान से सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान होता है। ल सम्यक्ज्ञान केवलज्ञान का कारण है। सम्यक्ज्ञान दूज का चंद्रमा है, केवलज्ञान पूर्णमासी का चंद्रमा है । सम्यक्ज्ञान के प्रताप से आत्मा आत्मा में ठहरता है, ज्ञानी की दृष्टि पर्याय को नहीं देखती। ज्ञान स्वभाव में रत रहना ही शुक्लध्यान है। इसी ज्ञान पूर्वक ध्यान से घातिया कर्मों का क्षय होकर यह जीव अरिहंत परमात्मा हो जाता है फिर सिद्ध परमात्मा पूर्ण शुद्ध सिद्ध मुक्त हो जाता है।
त्रिकाली ध्रुवतत्त्व शुद्धात्म स्वरूप को पकड़ने पर ही सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान होता है, ममल ज्ञान स्वभाव में लीन रहने पर ही सम्यक्चारित्र होता है, इसी में स्थिरता होने से सब घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट होता है। सम्यकदृष्टि ज्ञानी की दृष्टि द्रव्य स्वभाव पर से नहीं हटती,जो यह दृष्टि स्वभाव से हटकर वर्तमान पर्याय में रुके, पर्याय की रुचि हो जाये तो मिथ्या दृष्टि हो जाये । ज्ञानी अपने ज्ञान स्वभाव में ही रत रहता है,पर्याय का लक्ष्य नहीं रखता, उसकी पर्याय में वीतरागता प्रगट होने पर भी पर्याय में रुकता नहीं है, उसकी दृष्टि तो त्रिकाली ध्रुव स्वभाव पर ही टिकी है, जिससे सब कर्म क्षय होकर केवलज्ञान और सिद्धपद प्रगट हो जाता है. यही ज्ञानावरणादि घातिया और अघातिया कर्मों से छूटने का उपाय है।
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ऊपर के कथनों में यह बताया है कि जो आत्मज्ञान से शून्य, अन्य शरीरादि में आपा मान कर सत्य धर्म से बाहर रहते हैं, मिथ्याज्ञान की आराधना करते हैं, सम्यज्ञान का निरादर करते हैं उनको ज्ञानावरण कर्म का तीव्र बंध होता है, जिससे वे नरक व निगोद में जाकर मूढ व अल्पज्ञानी हो जाते हैं : अतएव ज्ञानी को ज्ञानावरण के बंध के कारणों से बचना चाहिये और ज्ञान के प्रकाश के कारणों को आचरण में लाना चाहिये।
प्रश्न-शानावरण कर्म के आसवबंध के कारण क्या हैं?
समाधान - निम्न लिखित भावों से व कर्मों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव तथा बंध होता है
१. ज्ञान स्वभाव आत्मा की अरुचि तथा पर पर्याय में रुचि होना। २. भेदविज्ञान को महत्व नहीं देना, पर पदार्थ को महत्व देना। ३. ज्ञान साधना, स्वाध्याय, सत्संग में प्रमाद करना। ४. ज्ञानियों से ईर्ष्या भाव रखना। ५. ज्ञान के प्रकाश में विध्न करना। ६. उत्तम ज्ञान, सत्य वस्तु स्वरूप से भी बुरा मानना। ७. ज्ञान होते हुए भी आलसी, प्रमादी भीरू रहना। ८.ज्ञानियों का निरादर करके ज्ञान के प्रकाश को रोकना। ९. सत्य ज्ञान का मिथ्या युक्तियों से खंडन करना। १०. अनादर के साथ शास्त्र सुनना, वाद-विवाद करना। ११. ज्ञान प्राप्ति में आलस्य रखना। १२. शास्त्र बेचना अथवा प्रवचन करके धन संग्रह करना। १३. बहुत शास्त्र ज्ञाता होने पर अभिमान से मिथ्या उपदेश करना।
१४. ज्ञान मद रखना, मैं सब कुछ जानता हूँ. मैंने सब शास्त्र पढ़े हैं इत्यादि कारणों से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है।
प्रश्न -घातिया कर्म चार-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय होते हैं इनके समूल क्षय होने पर ही केवलज्ञान होता है, यह सब कैसे क्या होता है?
समाधान - आत्मा तो अखंड द्रव्य एक अभेद केवलज्ञान स्वभावी है परंतु संसार में शरीरादि कर्म संयोग के कारण भेद में पड़ा है। जिसमें पहला भेद दृष्टि या उपयोग है। उपयोग के दो भेद हैं- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग।
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1-1-16--15-11-15
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