________________
-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
स्व स्वरूप है उसका लक्ष्य हो जाता है। शब्द ब्रह्म है, जो स्व-पर प्रकाशक है । ॐकार स्वरूप दिव्यध्वनि से तीनों प्रकार के कर्मक्षय हो जाते हैं। यदि शब्दों का सदुपयोग किया जावे, स्व का लक्ष्य हो तो कल्याणकारी होता है परंतु शब्दों को पकड़ने, पर का लक्ष्य होने से यही शब्द अनिष्टकारी हो जाते हैं। विपरीत दृष्टि से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है।
मति, श्रुत ज्ञान को स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष कहा है क्योंकि आत्मसिद्धि के लिये मति, श्रुत यह दो ज्ञान ही आवश्यक ज्ञान हैं। शब्द श्रुत के माध्यम से मति, श्रुत ज्ञान होते हैं तथा इन मति और श्रुत ज्ञानों में भी इतनी विशेषता है कि जिस समय इन दोनों में से किसी एक द्वारा स्वानुभूति होती है उस समय यह दोनों ज्ञान भी अतीन्द्रिय स्वात्मा का प्रत्यक्ष करते हैं, सामने लखते हैं; परंतु जिस समय यह दोनों ज्ञान स्पर्शादिक विषयों को जानते हैं तथा आकाशादि पदार्थों को जानते हैं, उस समय यह दोनों ज्ञान नियम से परोक्ष ही हैं ।
दोनों ज्ञान स्व की अपेक्षा कल्याणकारी हैं और पर की अपेक्षा अनिष्टकारी हैं, शब्दज्ञान भी स्व पर प्रकाशक है, अपने आत्मा के विचार में निपुण राग रहित जीवों के द्वारा निर्दोष श्रुतज्ञान से भी आत्मा केवलज्ञान के समान जाना जाता है। आत्मध्यान का अभ्यास करने से तीनों प्रकार के कर्म क्षय हो जाते हैं।
दिव्यध्वनि जिनवाणी में जो वस्तु स्वरूप आया है उसका आराधन करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। विपरीत दृष्टि होने से ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होकर संसार परिभ्रमण चलता है।
प्रश्न- जिनवाणी, जिनवचनों का सार क्या है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
वयनं च कम्म जिनियं, वयनं च सुद्ध सहाव निम्मलयं ।
वयनं सास्वय रूवं, अनिस्ट वयनं च न्यान आवरनं ।। ३५४ ।। वयनं च जिसं वयनं, ब्रिस सहकार अजितं विरयं । जड़ अन्रित उवएस, न्यानं आवरन दुष्य वीयम्मि ।। ३५५ ।।
अन्वयार्थ - (वयनं च कम्म जिनियं) जिनेन्द्र के वचनों का मनन करने से कर्मों को जीता जा सकता है (वयनं च सुद्ध सहाव निम्मलयं ) जिन
२०३
गाथा ३५४, ३५५ ******
वचनों से अपना शुद्ध स्वभाव निर्मल है यह ज्ञात होता है (वयनं सास्वय रूवं) जिनेन्द्र के वचन ही शाश्वत स्वरूप हैं अर्थात् सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं (अनिस्ट वयनं च न्यान आवरनं) इसके विपरीत राग-द्वेष पोषक अधर्मकारी वचन अनिष्ट होते हैं, उनमें लगने से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है।
( वयनं च न्रितं वयनं) वचन वे ही हितकारी हैं जो वचन शाश्वत होते हैं अर्थात् जिन वचनों में आदि अंत एक सा निर्वाह हो, जो सत्य वस्तु स्वरूप को बताते हैं (त्रित सहकारं अन्रितं विरयं) शाश्वत वचनों को जान लेने से मिथ्याज्ञान चला जाता है, जिससे संसार परिभ्रमण छूट जाता है (जइ अन्रित उवएस) यदि मिथ्या उपदेश सुनाया तो (न्यानं आवरन दुष्य वीयम्मि) ज्ञानावरण कर्म का बंध कर दुःखों का बीज बोना है।
विशेषार्थ जिनवाणी जिनेन्द्र के वचनों का मनन करने से कर्मों को जीता जाता है, संसार परिभ्रमण से मुक्त हुआ जाता है। जिनवाणी में अपना शुद्ध स्वभाव ममल निर्मल शाश्वत है यह बताया है जिसे जानने से भेदज्ञान और वस्तु स्वरूप का बोध होता है। जिनेन्द्र के वचन ही सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं, जिनवाणी के ज्ञान से लोकालोक का ज्ञान होता है। जो यथार्थ तत्त्व का अनुभव करते हैं वे कर्मों को क्षय कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत जो राग द्वेष-अधर्म का पोषण करने वाले अनिष्ट वचनों में लगते हैं वे ज्ञानावरण कर्म का बंध करते हैं।
-
जिनवाणी में आत्म कल्याणकारक उपदेश है। जिन वचनों में आदि अंत एक सा निर्वाह होता है वे ही शाश्वत वचन होते हैं, जिनके श्रवण मनन से मिथ्याज्ञान चला जाता है, संसार परिभ्रमण छूट जाता है परंतु जो मिथ्यात्व का उपदेश करते हैं व जो उन पर श्रद्धान लाते हैं वे तीव्र ज्ञानावरण कर्म का बंध कर दुःखों का बीज बोते हैं ।
आत्मा शुद्ध चिदानंद मूर्ति है उसकी रुचि कर और राग तथा व्यवहार की रुचि छोड़, तेरा स्वरूप आनंद कंद सच्चिदानंद स्वरूप है, निज स्वरूप के आश्रय से ही मुक्ति होती है। यह जिन वचन हैं जो सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं ।
जीव कर्म के उदय से दुःखी नहीं है बल्कि अपने अज्ञान मोह, राग- - द्वेष के कारण से दुःखी होता है। उस दुःख का नाश करने का एक मात्र उपाय तो वीतराग भाव है। जो शास्त्र ऐसा बोध उपदेश नहीं देते वह राग-द्वेष मोह के
*