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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
प्रश्न- इसके लिये क्या करना चाहिये ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - सदर्थ अर्थ सहावं, सहकारेन सदर्थं विन्यानं ।
अन्रितं अचेत अनर्थं, अन्यान कस्ट न्यान आवरनं ।। ३५१ ।। सहकार अर्थ ससहावं, सहजोपनीत सहाव सदर्थं ।
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अनेय विभ्रम सहियं न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं ।। ३५२ ।। अन्वयार्थ (सदर्थं अर्थ सहावं ) सच्चा अर्थ तो अपना स्वभाव ही प्रयोजनीय है (सहकारेन सदर्थ विन्यानं) इस श्रद्धान की सहकारिता से ही सत्य पदार्थ का विशेष ज्ञान होता है (अन्रितं अचेत अनर्थं) क्षणभंगुर नाशवान अचेतन जड़ पदार्थ तो सब अनर्थकारी हैं, इनको प्रयोजनीय मानना (अन्यान कस्ट न्यान आवरनं) अज्ञान है इसी से अनेक कष्ट भोगना पड़ते हैं और ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है।
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( सहकार अर्थ ससहावं ) सहकारी और प्रयोजनीय तो अपना स्व स्वभाव ही है (सहजोपनीत सहाव सदर्थं) सहज उपलब्ध अनुभव प्रमाण अपना स्वभाव ही सद्अर्थ है (अनेय विभ्रम सहियं) जिनको आत्मा के स्वरूप में भ्रम होता है व अनेक शंकायें होती हैं, वे सही निर्णय नहीं कर पाते, ज्ञान को यथार्थ नहीं कर पाते (न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं) वे ज्ञानावरण से दुर्गति के पात्र होते हैं।
विशेषार्थ - सच्चा अर्थ इष्ट और प्रयोजनीय तो निज स्वभाव ही है। मैं आत्मा शुद्ध ममल ज्ञान स्वभावी हूँ, यह श्रद्धान व यही मनन-चिंतन, बार-बार का अभ्यास भेदविज्ञान को बढ़ाते-बढ़ाते केवलज्ञान तक पहुंचा देता है। आत्मा का स्वाभाविक केवलज्ञान स्वरूप सहज साध्य है, आत्मा का • अनुभव करने से वह ज्ञान अपने आप सहज में प्रगट हो जाता है। सहजोपनीत, सच्चा अर्थ तो स्व स्वरूप ही है इसके लिये बाहर से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। अपनी दृष्टि का परिवर्तन, उसकी लगन और रुचि होना ही सहकारी है । भेदविज्ञान से सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र की पूर्णता रूप केवलज्ञान प्रगट होता है।
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जो जगत के नाशवान झूठे अचेतन जड़ पदार्थों को इष्ट हितकारी मानते हैं वे अज्ञानी जीव अनेक कष्ट सहते हुए ज्ञानावरण कर्म का बंध करते हैं ।
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गाथा- ३५१-३५३ *****
जिनको आत्मा के स्वरूप में भ्रम है, शंका है और शरीर, धन, स्त्री, पुत्र, परिवार को हितकारी मानते हैं, अनेक प्रकार की व्यवहारिकता की बातें करते हैं वे ज्ञानावरण से दुर्गति के पात्र होते हैं।
मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, समस्त विकारों से रहित चिदानंद चैतन्य मूर्ति हूँ । इस बात का श्रद्धान, विश्वास, चिंतन, मनन करना ही एकमात्र प्रयोजनीय हितकारी है।
काम, भोग, बंधन की कथा सुनने का योग तो बहुत ही सुलभ है । राज्यपद, चक्रवर्तीपद मिलना भी दुर्लभ नहीं है परंतु बहुत परिश्रम से मिलने योग्य बात तो आत्मा की है। यह एक ही बात सर्वोत्कृष्ट व आत्मसात् करने योग्य है । सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र की बात अति दुर्लभ है क्योंकि जीव ने आज तक उसका पुरुषार्थ ही नहीं किया है, पर का ही लक्ष्य किया होने से आत्मा की बात दुर्लभ हो गई है। शरीर मन वाणी से आत्मा भिन्न है, यह बात जिसको रुचती है उसी ने यथार्थतः आत्मा की बात सुनी है।
यह सत् धर्म निर्विकल्प है, इसमें शुभराग की भी मुख्यता नहीं है । वीतरागता वर्तती है, ज्ञान में सत् का न्याय वर्तता है, यही सहजोपनीत मार्ग श्रेष्ठ हितकारी है । भाषा, शब्द, धर्म नहीं है परंतु ज्ञान में वर्तित विवेक ही सत् धर्म, सदर्थ है।
प्रश्न- शब्द धर्म नहीं है फिर इन शब्दों का क्या प्रयोजन है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं
सब्दं सदर्थ रूवं सब्दं चिपिऊन कम्म तिविहेन ।
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सब्दं अलक्ष्य लक्ष्यं, सब्दं अनिस्ट न्यान आवरनं ।। ३५३ ।। अन्वयार्थ (सब्दं सदर्थ रूवं) शब्दों से सत् पदार्थ आत्मा का स्वरूप मालूम होता है (सब्दं षिपिऊन कम्म तिविहेन) ॐकार स्वरूप दिव्यध्वनि से तीनों प्रकार के कर्मक्षय हो जाते हैं (सब्दं अलष्य लष्यं) शब्द की सहायता से जो अलक्ष्य आत्मा है उसका लक्ष्य हो जाता है (सब्दं अनिस्ट न्यान आवरनं) शब्द ब्रह्म है, जो स्व पर प्रकाशक है, स्व का लक्ष्य छोड़कर पर का लक्ष्य करना अनिष्टकारी है जिससे ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है । विशेषार्थ यद्यपि आत्मा अनुभवगम्य है तथापि शास्त्र व गुरूपदेश द्वारा जो योग्य शब्द सुनने व देखने में आते हैं, उनके अर्थ पर मनन करने से आत्मा के स्वरूप का बोध होता है। शब्द की सहायता से जो अलक्ष्य आत्मा,
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