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गाथा-३४९.३५०
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********* श्री उपदेश शुद्ध सार जी 2 चैतन्य स्वभाव की महिमा कोई अचिन्त्य है. ऐसी अंदर से महिमा आवे
तो स्व सन्मुख पुरुषार्थ प्रारम्भ होवे । वास्तव में तो जो उपयोग परलक्षी है उसे स्वलक्षी करना इसमें महान पुरुषार्थ है और यह शनैः शनैः के अभ्यास से ही किया जा सकता है।
प्रश्न- यह अभ्यास कैसा और कब तक करना चाहिये? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अवयासं सुख सहावं, अवयास परम भाव उवलद्ध। अवयास कम्म विपनं, अवयास रहिय न्यान आवरनं ।। ३४९॥ अवयास नंतनंतं, नंत चतुस्टय च ममल सभावं । अवयास हीन का पुरिसा, न्यानं आवरन सरनि संसारे ॥ ३५०॥
अन्वयार्थ-(अवयासं सुद्ध सहावं) शुद्ध स्वभाव का अभ्यास करना चाहिये (अवयासं परम भाव उवलद्ध) जब तक परम भाव उपलब्ध न हो जावे तब तक अभ्यास करना चाहिये (अवयास कम्म विपनं) इस अभ्यास करने अर्थात् उपयोग को अपने स्वभाव में बारंबार लगाने से कर्म क्षय होते हैं (अवयासं रहिय न्यान आवरनं) अभ्यास रहित प्रमाद में रहने से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है।
(अवयास नंतनंतं) यह अभ्यास, बारंबार, निरंतर, अनंतानंत करना चाहिये (नंत चतुस्टय च ममल सभावं) जब तक अपना अनंत चतुष्टयमयी ममल स्वभाव प्रगट न हो जाये अर्थात् जब तक केवलज्ञान न हो तब तक निरन्तर यह अभ्यास करना चाहिये (अवयास हीन का पुरिसा) अभ्यास हीन, प्रमादी, कायर पुरुष होते हैं जो (न्यानं आवरन सरनि संसारे) ज्ञानावरण कर्म बांधकर संसार में परिभ्रमण करते हैं।
विशेषार्थ- मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ ऐसे अपने शुद्ध स्वभाव का अभ्यास करना चाहिये। जब तक परम पारिणामिक भाव उपलब्ध अर्थात् * प्रत्यक्ष प्रगट न हो जाये तब तक यह अभ्यास करना चाहिये । उपयोग को * स्वभाव में लगाना ही मुक्त होने का पुरुषार्थ है। उपयोग का स्वभाव में
एकाग्र स्थिर होना ही शुद्धोपयोग कहलाता है, इससे अपने आप कर्म क्षय होते हैं। जैसे-उपयोग का पर पर्याय में लगने से अपने आप कर्मों का बंध
होता है, वैसे ही उपयोग का स्वभाव में लगने से अपने आप कर्मों का क्षय ***** * * ***
होता है । अभ्यास रहित प्रमाद में रहने से ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है।
जब तक अपना अनंत चतुष्टयमयी ममल स्वभाव केवलज्ञान स्वरूप प्रगट न हो जाये तब तक बराबर अनंतानंत अभ्यास करते रहना चाहिये, ज्ञानी का काम ही यही है। उपयोग का स्वभाव में ४८ मिनिट स्थिर एकाग्र होने पर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है, यह अपनी पात्रता और पुरुषार्थ की बात है। आदिनाथ भगवान को साधु पद में एक हजार वर्ष तक साधना करनी पड़ी, तब केवलज्ञान हुआ, वहीं भरत चक्रवर्ती ने जैसे ही साधुपद धारण किया, ध्यान समाधि लगाई, अड़तालीस मिनिट में केवलज्ञान हो गया। भगवान महावीर को बारह वर्ष में केवलज्ञान प्रगट हुआ, वहीं शिवभूति मुनि को अड़तालीस मिनिट में केवलज्ञान प्रगट हो गया।
यह अपनी पात्रता और पुरुषार्थ की बात है, इसकी निरंतर साधना और अभ्यास करना ही ज्ञानी का काम है। जो अभ्यास हीन कायर पुरुष, प्रमादी, नपुंसक हैं जो अपने ज्ञान का सदुपयोग नहीं करते वह ज्ञानावरण कर्म का बंधकर संसार में ही परिभ्रमण करते हैं।
आत्मा को जानने के लिये परिणाम को सूक्ष्म करो क्योंकि स्थूल परिणाम से द्रव्य जानने में नहीं आता । अज्ञानी को ग्यारह अंग का ज्ञान हो जाता है तो भी उसका उपयोग सूक्ष्म नहीं है, स्थूल है। आत्मा स्थूल परिणामों से जानने में नहीं आता है । सूक्ष्म आत्मा को जानने के लिये उपयोग को सूक्ष्म करना पड़ता है।
जो दर्शन ज्ञान चारित्र रूप आत्मा मध्यस्थ भाव से आत्मा को आत्मा द्वारा आत्मा में देखता जानता है, वह निश्चय से स्वयं मुक्ति का कारण बनता है, ऐसा सर्वज्ञ देव जिनवर की वाणी में कहा है।
प्रश्न-इतना जानने समझने तत्त्व का स्वरूप बराबर ज्ञात होने पर भी उपयोग अपने स्वरूप में क्यों नहीं लगता?
समाधान - तत्त्व को सही जानने पर भी पर की ओर के भाव में अंत:करण के चक्कर में, व्यवहार कुशलता और परलक्षी ज्ञान में संतोष मानता * है। दक्षता के अभिमान में अटक जाता है, बाह्य प्रसिद्धि के भाव में रुक जाता है। स्वभाव में रहने के भाव न होने से अटक जाता है अथवा शभ परिणाम में मिठास रह जाती है। मुक्ति की तीव्र रुचि और कठोर पुरुषार्थ के बिना उपयोग अपने स्वभाव में नहीं रहता इसमें पूर्व कर्म बंधोदय भी निमित्त होते हैं।
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地带,必章改命改命地
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