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________________ गाथा-३४८*-*-*-*-*-*-* - ---- --- ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी जगत प्रपंच ही देखा करता है जिससे ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है। आत्मा का हित तो मोक्ष ही है और वह अपने शुद्ध स्वभाव के आश्रय (अर्थ तिअर्थ सुद्ध) अर्थकारी प्रयोजनीय शुद्ध रत्नत्रय स्वरूप आत्मा के रत्नत्रय-सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से ही प्राप्त होता है। संसार * है (सम सम्पूर्न न्यान समयं च) जो सामान्य परिपूर्ण ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा अवस्था में दु:ख है । आकुलता सो दुःख है व निराकुलता सो सुख है ऐसा है (न्यान विहीन अनर्थ) जो इस आत्मा के यथार्थ ज्ञान से रहित है, वही निर्णय किये बिना मोक्षमार्ग में प्रवेश ही नहीं हो सकता। ** अनर्थ में मगन, मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है (पज्जय सहकार न्यान आवरनं) वह प्रश्न - इस अर्थ की सिद्धि के लिये क्या करना चाहिये? पर्याय में रत होने से ज्ञानावरण कर्म बांधता है। इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंविशेषार्थ- सर्व में प्रयोजनीय मुख्य अर्थ शुद्धात्मा है, जो सम्यक्दर्शन, अर्थ अवयास अर्थ, अवयासं सुद्धममल न्यानस्य। सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी शुद्ध परमार्थ है, इसी के आश्रय मुक्ति की अवयास रहिय अन्यानं, न्यानं आवर्न नस्य वीयम्मि ॥ ३४८॥ प्राप्ति होती है, जो इस अर्थ से विरत है अर्थात् इस भेद को नहीं पहिचानता और सांसारिक शरीर, धन, कुटुम्बादि पदार्थों में मगन है वह सच्चे अर्थ (ज्ञान) अन्वयार्थ - (अर्थ अवयास अर्थ) अर्थ की सिद्धि के लिये प्रयोजनीय से दूर रहने के कारण तीव्र ज्ञानावरण कर्म का बंध करता है। निज शुद्धात्म तत्त्व का अभ्यास करना चाहिये (अवयासं सुद्ध ममल न्यानस्य) __आत्मा निश्चय से रत्नत्रय स्वरूप व परम साम्यरूप सत्पदार्थ है, ज्ञान शुद्ध ममल ज्ञान स्वभाव का अभ्यास करने से सिद्ध पद प्राप्त होता है (अवयास स्वभावी शुद्धात्मा है, जो इस ज्ञान को नहीं जानता, वह अज्ञानी मिथ्यादर्शन रहिय अन्यानं) अभ्यास रहित अज्ञान में लिप्त रहता है (न्यानं आवर्न नरय में रत होने से संसार की माया में फंसकर पर्यायरत रहता हुआ ज्ञानावरण वीयम्मि) जिससे ज्ञानावरण कर्म बांधकर नरक का बीज बोता है। कर्म का बंध करता है। विशेषार्थ - अर्थ की सिद्धि के लिये परम प्रयोजनीय निज शुद्धात्म जीव अर्थ है तथा ज्ञायकता उसका भाव है। अजीव भी अर्थ है और स्वरूप का अभ्यास करना चाहिये कि यह शुद्ध ममल ज्ञान स्वभावी भगवान अचेतनता, जड़ता उसका भाव है। संवर, निर्जरा अर्थ है व वीतरागता उसका आत्मा मैं हूँ, ऐसा अभ्यास अर्थात् बारंबार उपयोग को स्वभाव में लगाना, भाव है। आसव बंध अर्थ है और मलिनता रागादि उसका भाव है। केवलज्ञान इससे सर्व कर्म क्षय होते हैं तथा सिद्ध परम पद प्राप्त होता है। यदि इसका पर्याय भी अर्थ है व तीन काल, तीन लोक को एक समय में जानना उसका अभ्यास न किया जाये तो उपयोग पर पर्याय रूप अज्ञान में लगा रहता है भाव है। इस प्रकार अर्थ व उसके तत्त्व को जाने तो यथार्थ श्रद्धा हो। जिससे जीव ज्ञानावरण कर्म बांधकर नरक का बीज बोता है। एक जीव तत्त्व को जानने में सातों ही तत्त्वों का ज्ञान हो जाता है। जीवन ज्ञायक स्वभावी आत्मा का निर्णय करके मति, श्रुत ज्ञान का उपयोग तत्त्व के वल सामान्य स्वरूप ही नहीं परंतु अपने विशेषों सहित है। जो बाह्य में जाता है उसे अंतर में समेट लेना। बाहर जाते हुए उपयोग को जीव-अजीव सामान्य है तथा आस्रवादि शेष पांच तत्त्व उनके विशेष हैं, धुवतत्त्व, ममल ज्ञान स्वभाव के अवलम्बन द्वारा बारम्बार अंतर में स्थिर करते अज्ञानीजन उन्हें जाने बिना ही व्रत, तप में धर्म मानते हैं। नय, निक्षेप, रहना, वही मोक्षपुरी पहुंचने का राजमार्ग है। प्रमाण द्वारा राग रहित वस्तु का ज्ञान करना प्रथम योग्यता है, तत्पश्चात् ज्ञान की वर्तमान पर्याय का सामर्थ्य स्व को जानने का है लेकिन उसकी * स्वभाव के लक्ष्य से राग का अभाव होता है यह प्रयोजनभूत बात है। दृष्टि पर में पड़ी होने से वहाँ एकत्व करता हुआ, रागादि पर जानने में आता पुण्य, पाप, दया, दानादि रागभाव विकार हेय हैं, यह भासित हुए है, इस प्रकार अज्ञानी पर के साथ एकत्व पूर्वक जानता मानता है। अज्ञानी * बिना आत्मा का सच्चा ज्ञान नहीं होता। जो बंध के फल को हितकर मानता को अपने अस्तित्व की खबर नहीं है, पर के अस्तित्व की खबर नहीं है और * है, वह बंध को ही हितकारी मानता है। जो जीव लौकिक अनुकूलता में ही स्व-पर भिन्नता की खबर नहीं है। उसको भेदज्ञान बिना धर्म नहीं होता है, खो गया हो, वहाँ कर्म बंध होता है। अज्ञानी को निरंतर कर्म का बंध होता है। २०० ***** * * *** 当然苦修者长到传送出 1-1-1-1-1-1-1-12
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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