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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
होने पर परमानंद होता है (दिग अंगं सर्वन्य सुद्ध ससरूवं) अपना शुद्ध स्वरूप सर्वज्ञ स्वभावी दिगम्बर है (जइ परमानंद पज्जावं) यदि कोई बहिर्दृष्टि पर्याय में ही आनंद मानने लगे तो (न्यानं आवरन दुष्य वीयम्मि) ज्ञानावरण से दुःखों का बीज बोता है।
(पद विंदं परमिस्टी) पद की अनुभूति से ही परमेष्ठी पद प्रगट होता है अर्थात् आत्मानुभूति से अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पद होता है (इस्टी संजोग कम्म षिपनं च) ऐसे अपने इष्ट स्वरूप का संयोग होने से सभी कर्म क्षय हो जाते हैं (जइ पज्जावं सहियं) यदि शरीरादि संयोगी पर्याय सहित होते हो, पर्याय में रत रहते हो तो (न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं) ज्ञानावरण से दुर्गति में जाना पड़ेगा ।
(पद विंदं च उवन्नं) अपने सिद्ध पद की अनुभूति करने से प्रगट होता है (परमं परम तत्त परमप्पं ) श्रेष्ठ परम तत्त्व परमात्मा (जइ इस्ट विओय अनिस्ट) यदि ऐसे इष्ट का वियोग करके अर्थात् शुद्धात्मानुभूति छोड़कर, पर पर्याय में रत होते हो जो अनिष्टकारी है, इससे (न्यानं आवरन चउ गए भमियं ) ज्ञानावरण कर्म से चारों गतियों में भ्रमण करना पड़ेगा ।
विशेषार्थ अपना पद सादि अनंत अविनाशी सिद्ध परमपद है, अपना शुद्ध स्वरूप सर्वज्ञ स्वभावी अरिहंत परमात्मा केवलज्ञानी सारे आवरणों से रहित दिगम्बर है, ऐसे अपने पद की अनुभूति करने से परमानंद प्रगट होता है जो अतीन्द्रिय आनंद अवक्तव्य है। यदि यह अनुकूल वातावरण, संयोगी पर्याय में आनंद मानने लगे तो ज्ञानावरण कर्म का बंधकर दुःखों का बीज बोना है।
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अपने पद की अनुभूति करने से परमेष्ठी पद प्रगट होता है, साधुपद से अरिहंत और सिद्ध पद होता है, ऐसे इष्ट का संयोग करने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। शुद्धात्मा के अनुभव में उपयोग की स्थिरता कर्मबंध नाशक है जबकि शरीरादि पर्याय में रागभाव कर्म बंध कारक है। यदि पर्याय सहित होते हो,
यहाँ पर्याय से प्रयोजन उन सर्व अवस्थाओं से है जो कर्मों के उदय के निमित्त से होती हैं तो इस अज्ञान से ज्ञानावरण कर्म का बंध होगा जिससे दुर्गति में जाना पड़ेगा ।
अपने शुद्ध स्वरूप सिद्ध पद की अनुभूति करने से श्रेष्ठ परम तत्त्व परमात्मपद प्रगट होता है। यदि ऐसे इष्ट स्वरूप का वियोग करके यह
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गाथा ३४६, ३४७ *******
अनिष्टकारी पर्याय में रत रहते हो तो ज्ञानावरण कर्म का बंध कर चारों गतियों में भ्रमण करना पड़ेगा ।
अपने पद की अनुभूति करने से परमानंदमयी परमेष्ठी पद परमात्म स्वरूप प्रगट होता है। उपयोग का (दृष्टि का) अपने स्वरूप में लगना ही अपने पद की अनुभूति करना है और इससे सारे कर्मबंधन टूट जाते हैं, सब कर्म क्षय हो जाते हैं, आत्मा परमात्मा हो जाता है। यदि उपयोग पर पर्याय, शरीरादि संयोग में रत रहता है तो ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर चारों गतियों में चक्कर लगाना पड़ेगा।
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स्वानुभूति प्राप्ति हेतु ज्ञान स्वभावी आत्मा का जिस तरह हो दृढ़ निर्णय करना चाहिये, ज्ञान स्वभावी सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा का निर्णय दृढ़ करने में सहायभूत तत्त्वज्ञान का, द्रव्यों की स्वयं सिद्धि, सत्यता और स्वतंत्रता, द्रव्य, गुण पर्याय, उत्पाद, व्यय, धौव्य, नवतत्त्वों का सत्य स्वरूप, जीव और शरीर की क्रियाओं की भिन्नता, पुण्य और धर्म के लक्षण भेद, निश्चय-व्यवहार आदि अनेक विषयों के यथार्थ बोध का अभ्यास करना। प्रयोजन भूत सर्व तत्त्वज्ञान का सिरमौर, जो शुद्ध द्रव्य सामान्य, परम पारिणामिक भाव, शुद्धात्म तत्त्व यह स्वानुभूति का आधार है, सम्यक्दर्शन का आश्रय है, मोक्षमार्ग का आलम्बन है, सर्व शुद्ध भावों का नाथ है, उसकी दिव्य महिमा हृदय में सर्वाधिक रूप से अंकित करना योग्य है, ऐसे निज स्वरूप, परमात्मपद में उपयोग लगाने से परमानंदमयी परमेष्ठी पद, परमात्म पद प्रगट होता है ।
प्रश्न- इन सबमें प्रयोजनीय अर्थ क्या है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
अर्थं च अर्थ सुद्धं, अर्थं तिअर्थ सुद्ध परमत्थं ।
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अर्थ विरय अनर्थ ज्याने आयर्न अजितं दिहं ।। ३४६ ।। अर्थ तिअर्थ सुसम सम्पूर्ण न्यान समयं च ।
न्यान विहीन अनर्थं, पज्जय सहकार न्यान आवरनं ।। ३४७ ॥
अन्वयार्थ (अर्थ च अर्थ सुद्धं ) सर्व में प्रयोजनीय,
मुख्य अर्थ शुद्धात्मा है (अर्थं तिअर्थ सुद्ध परमत्थं) यही रत्नत्रय स्वरूप प्रयोजनीय शुद्ध परमार्थ है (अर्थ विरय अनर्थ ) जो इस अर्थ प्रयोजन से विरत है और अनर्थकारी संसार पर्याय में मगन है वह (न्यानं आवर्न अन्रितं दिट्ठ) असत्य
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