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गाथा-३४३-३४५
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अनुभव करने में है (पद दसँ विन्यान विंदु दर्संतो) भेदविज्ञान जो आत्मा * के स्वरूप को भिन्न देखने वाला है वही सिद्ध पद को देखता है जो विंद * स्वरूप है (पद विन्यान विहीनो) अपने पद के विज्ञान से रहित (न्यानं आवरन निगोय वासम्मि) ज्ञानावरण से निगोद में वास करना पड़ता है।
(पद विंदं सर्वन्यं) अपने सर्वज्ञ स्वरूप पद की अनुभूति करो (पद विंदं परम केवलं न्यानं) अपने परम केवलज्ञान स्वभाव पद का वेदन, अनुभव करो (पद विंद रहिय अनिस्टं) अपने पद की अनुभूति से रहित, पर पर्याय का अनुभव करना अनिष्टकारी है इससे (न्यानं आवरन दुष्य वीयम्मि) ज्ञानावरण कर्म का बंध होगा जो दु:खों का बीज बोना है।
(पद विंदं च सहावं) अपने पद का अनुभव करो जो अपना स्वभाव है (पदर्थं परम अर्थ ससरूवं) परम प्रयोजन तो अपने स्वस्वरूप का अनुभव करना है, जो पद प्रयोजनीय है (जइ पज्जाव सहावं) यदि पर्याय के स्वभाव में रत होते हो तो (न्यानं आवरन सरनि संसारे) ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर संसार में ही भ्रमना होगा।
विशेषार्थ-भेदविज्ञान से सम्यक् ज्ञान होता है, सम्यक् ज्ञान से केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान से सिद्ध पद प्राप्त होता है। श्रेष्ठता तो अपने परमात्म पद के अनुभव करने में है। भेदविज्ञान द्वारा अपने सिद्ध पद को देख लिया, जान लिया है, तो उसी को देखो, उसी का अनुभव करो, जो लोग अपने उपयोग को स्व पद के जानने में, परमात्म पद के ज्ञान में नहीं लगाते, संसारी प्रपंच में लगाते हैं वे ज्ञानावरण कर्म बांधकर निगोद में वास करते हैं।
अपना पद तो सर्वज्ञ स्वरूप परम केवलज्ञान स्वभाव है, ऐसे अपने परमपद का अनुभव करो। यदि अपने पद के अनुभव से रहित पर पर्याय का अनुभव करते हो तो यह अनिष्टकारी है, इससे ज्ञानावरण कर्म का बंध होगा, जो दु:खों का बीज बोना है।
अपने लिये परम इष्ट और प्रयोजनीय तो अपने स्वभाव की अनुभूति * करना है। इसी से सारे कर्म क्षय होकर मुक्ति सिद्ध पद की प्राप्ति होती है, *यदि अपने स्व स्वरूप सिद्ध पद की सुरत भूलकर यह पर्यायी परिणमन में *उलझते हो तो ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर संसार में ही भ्रमना होगा।
प्रज्ञा छैनी, भेदविज्ञान रूप बुद्धि को शुभाशुभ भाव और ज्ञान की सूक्ष्म अंत: संधि में पटकना । उपयोग को बराबर सूक्ष्म करके आत्मा और अनात्मा
दोनों की संधि में सावधान होकर प्रहार करना अर्थात् बराबर सूक्ष्म उपयोग करके यथार्थ लक्षण द्वारा पहिचान कर स्वभाव-विभाव के बीच भेद करना। स्वभाव की महिमा से पर पदार्थों के प्रति रसबुद्धि सुखबुद्धि टूट जाती है। स्वभाव में अपने सर्वज्ञ स्वरूप केवलज्ञान, सिद्ध पद में ही रस आता है तब दूसरा रस नीरस लगता है, तभी अंतर की सूक्ष्म संधि ज्ञात होती है। अपने सिद्ध पद की अनूभूति करने से कर्मोदय जन्य संयोग छूट जाते हैं, सब कर्म क्षय हो जाते हैं और सिद्धि मुक्ति की प्राप्ति होती है। ऐसा नहीं होता कि पर में तीव्र रुचि हो और उपयोग अंतर में प्रज्ञा छैनी का कार्य करे। शुभाशुभ भाव से भिन्न मैं ज्ञायक हूँ, ममल स्वभावी, सिद्ध स्वरूपी, ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ, यह प्रत्येक प्रसंग में याद रखना । भेदज्ञान का अभ्यास करना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
पर से भिन्न ज्ञायक स्वभाव का निर्णय करके, बारंबार भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते मति श्रुत के विकल्प टूट जाते हैं। उपयोग गहराई में चला जाता है, अंतर तत्त्व निज परमात्म स्वरूप का दर्शन होता है । इस प्रकार स्वानुभूति की कला हाथ में आने पर, किस प्रकार पूर्णता प्राप्त हो, यह सब कला हाथ में आ जाती है। अपने परमात्म पद केवलज्ञान स्वरूप के साथ केलि प्रारंभ होती है, मुक्ति श्री से मिलन रमण होने लगता है । यदि उपयोग को पर पर्याय संसारी प्रपंच में लगाया तो ज्ञानावरण कर्म का बंध होकर निगोद आदि दुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करना पड़ेगा।
प्रश्न-अपने पद की अनुभूति करने पर क्या होगा?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - पद विंदं परमानन्दं, दिग अंगं सर्वन्य सुद्ध ससरूवं । जइ परमानंद पज्जावं, न्यानं आवरन दुष्य वीयम्मि ॥ ३४३ ॥ पद विंदं परमिस्टी, इस्टीसंजोग कम्म विपनं च। जड़ पज्जावं सहियं, न्यानं आवरन दुग्गए पत्तं ॥ ३४४॥ पद विंदं च उवन्न, परमं परम तत्त परमप्पं । जह इस्ट विओय अनिस्टं,न्यानं आवरन चउ गए भमियं ॥ ३४५॥ अन्वयार्थ - (पद विंदं परमानन्दं) अपने परमात्म पद की अनुभूति
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