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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
मिथ्यात्व सहित ज्ञान स्वभाव आत्मा पर आवरण करता है वह ज्ञानावरण का बंध करके नरक में वास करता है।
अक्षर शब्द रूप होता है, स्वर वाणी रूप बोला जाता है, पात्रता बिना गुरु समागम नहीं मिलता व गुरुगम बिना सत्य समझ में नहीं आता। अज्ञानी जीव पराधीन दृष्टि होने से शास्त्रों में से भी वैसा ही आशय उद्धृत कर, शास्त्रों का अर्थ उल्टा ही करता है।
प्रश्न - स्वर किस रूप है इसमें क्या कहा जाता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
सुरं च सुयं सरूवं, सुरं च सुद्ध समय संजुत्तं । जे जनरंजन सहियं, न्यानं आवरन थावरं पत्तं ।। ३२८ ।। सुरं च सुर्य सुलच्चे, अलवं लचियं च सुरं ससहावं । जइ कलरंजन विषयं, न्यानं आवरन नरय वीयम्मि ॥ ३२९ ॥ सुरं सुद्ध उपन्न सुरं च विपिओ हि सुर्य कम्मानं । मनरंजन गारव सहियं, न्यानं आवरन थावरं वीयं ॥
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३३० ॥
अन्वयार्थ - (सुरं च सुयं सरूवं) स्वर दिव्य ध्वनि रूप है और यह स्वयं का स्वरूप बताने वाला है (सुरं च सुद्ध समय संजुत्तं) केवलज्ञानी की दिव्यध्वनि में आया है कि अपने शुद्ध समय शुद्धात्मा में लीन रहो (जे जनरंजन सहियं) जो जीव, इस वाणी के विपरीत अपने उपयोग को जनरंजन अर्थात् लोगों को रंजायमान करने में लगाते हैं (न्यानं आवरन थावरं पत्तं) ज्ञान पर आवरण डालते हैं, वह तीव्र ज्ञानावरण कर्म का बंध करते हैं जिससे एकेन्द्रिय स्थावर में जन्म पाते हैं।
(सुरं च सुयं सुलष्यं) उस स्वाभाविक सूर्य सम ज्ञान का स्वयं ही प्रकाश होता है (अलषं लषियं च सुरं ससहावं) वाणी द्वारा प्रकाशित स्व स्वभाव जो अलख है, उसे लखो अनुभूति में लो (जइ कलरंजन विषयं) यदि अपनी दृष्टि, उपयोग स्व स्वभाव में न लगाकर कलरंजन के विषयों में लगाते हो तो (न्यानं आवरन नरय वीयम्मि) ज्ञान के ऊपर आवरण डालकर नरक का बीज बोते हो अर्थात् ज्ञानावरण से नरकादि जाना पड़ेगा ।
(सुरं च सुद्ध उवन्नं) वाणी द्वारा प्रकाशित जब अपना शुद्ध स्वभाव
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गाथा ३२८-३३० *******
प्रगट होता है (सुरं च षिपिओ हि सुयं कम्मानं) तब इस ज्ञान के होते ही स्वयं ही सारे कर्म क्षय हो जाते हैं ( मनरंजन गारव सहियं) परंतु यदि अपने उपयोग को अपने व दूसरों के मन को रंजायमान करने में व गारव अहंभाव में लगाया तो (न्यानं आवरन थावरं वीयं) ज्ञान स्वभाव आत्मा पर ज्ञानावरण कर्म का बंध करके स्थावर पर्याय में ही पैदा होना पड़ेगा ।
विशेषार्थ स्वर दिव्यध्वनि रूप है और यह स्वयं का स्वरूप बताने वाला है । केवलज्ञानी की दिव्यध्वनि में आया कि अपने शुद्ध समय शुद्धात्मा में लीन रहो। ज्ञान उसे ही कहते हैं जो वस्तु स्वरूप को यथार्थ जाने ।
सम्यक्ज्ञान आत्मा व अनात्मा को ठीक जानकर आत्मा के मनन में झुकता है, जिससे केवलज्ञान का प्रकाश हो जाता है। जो जीव इस वाणी के विपरीत अपने उपयोग को जनरंजन अर्थात् लोगों को रंजायमान करने में लगाते हैं उनको ज्ञानावरण कर्म का तीव्र बंध होता है जिसके फल से वह पंचेन्द्रिय से एकेन्द्रिय स्थावर हो जाते हैं।
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शुद्ध ज्ञान जो केवलज्ञान है वह मन, वचन, काय से न लखने योग्य आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करता है जबकि स्वसंवेदन ज्ञान परोक्ष रूप से आगम के आधार से उसी अलख आत्मा का अनुभव करता है। जो जीव अपने उपयोगको आत्मा की तरफ न लगाकर शरीरादि विषय भोगों में लगाते हैं, वह अपने ज्ञान का दुरुपयोग करते हैं और ज्ञानावरण कर्म बांधकर नरक जाते हैं ।
जिस ज्ञान से कर्मों का नाश होकर परमात्म पद होता है, उसी ज्ञान के द्वारा मनरंजन गारव किया जावे तो इससे ज्ञानावरण कर्म का तीव्र बंध करके स्थावर पर्याय में जाना पड़ेगा ।
आत्मा का चिदानंद स्वरूप है, उसकी पर्याय में होने वाले पुण्य-पाप तो कर्म हैं, उनकी रुचि छोड़कर स्वभाव का अनुभव करना यही ज्ञान का प्रकाश, वाणी की विशेषता है। सर्वज्ञ परमात्मा द्वारा कथित वस्तु के स्वरूप के अनुसार सम्यक्प से सांगोपांग समझना ही साधकता है। वाणी के द्वारा भावश्रुत प्रगट होता है।
स्वभाव सन्मुखता की शांति द्वारा कषाय की अग्नि बुझती है और स्वभाव लीनता से सारे कर्म क्षय होते हैं, भगवान ने भी वैसे ही स्व सन्मुखी मोक्षमार्ग की वर्षा की है, जो संसार रूपी दावानल को बुझाने का साधन है, अंतर में
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