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________________ *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी कहते हैं कि कर्म ही जीव को संसार में भटकाते हैं परंतु ऐसी मान्यता भूल है। कर्म जड़ हैं उनसे जीव नहीं घूमता परंतु जीव अपनी ही भूल से भटकता है तब कर्म को निमित्त कहते हैं। पहले भूल हुई और बाद में कर्म आये ऐसा नहीं है तथा कर्म उदित हुए इसलिये भूल हुई ऐसा भी नहीं है। स्वयं भूल करे तब कर्म निमित्त रूप होता है। शरीर कोई संसार नहीं है, स्त्री, कुटुम्ब, पैसा संसार नहीं है और कर्म भी संसार नहीं है। यदि शरीर ही संसार हो तो उसके जल जाने पर संसार भी जलकर राख हो जाये व मुक्ति हो जाये परंतु ऐसा नहीं होता । आत्मा का संसार तो आत्मा की पर्याय में है। जो वर्तमान दृष्टि (उपयोग) ज्ञान, दर्शन, वीर्य का अंकुर है सो त्रिकाल का अंश है, उस अंश द्वारा ही त्रिकाली आत्म तत्त्व का निर्णय होता है । जैसे-आम के दो पत्ते जमीन के ऊपर दिखने से यह निश्चित हो जाता है कि उसका बीज तो आम की गुठली है। वह बीज अव्यक्त होने पर भी उसके पत्ते द्वारा ही उसका ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार जो ज्ञान, दर्शन, वीर्य का अंश है सो चैतन्य का ही अंश है उससे चैतन्य स्वभावी आत्मा का निर्णय होता है। कि आत्मा अनंत चतुष्टय का धारी केवलज्ञान स्वभावी परमात्मा है क्योंकि वह राग-द्वेष अथवा पुण्य-पाप का अंश नहीं है तथा औपाधिक भाव रूप भी नहीं है। परम पारिणामिक भाव, सिद्ध स्वरूप आत्मा है, इस प्रकार निर्णय करने पर संसार कर्मादि से मुक्त हो जाता है। अज्ञान द्वारा संसार परिभ्रमण चलता है, ज्ञान से संसार परिभ्रमण छूटता है, मुक्ति होती है। अज्ञान से ही ज्ञानावरणादि कर्म का बंध होता है जो संसार परिभ्रमण का कारण है । प्रश्न- यह ज्ञान अज्ञान का स्वरूप क्या है ? समाधान- ज्ञान-अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद, अर्थरूप प्रगट होता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जैसा का तैसा जानना मानना ज्ञान है तथा अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ से वस्तु के स्वरूप को विपरीत जानना मानना अज्ञान है। अज्ञान से ज्ञानावरणादि कर्म का बंध होता है, ज्ञान से मुक्ति होती है। प्रश्न- यह अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ रूप ज्ञान कैसा होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - १९१ गाथा- ३२७-*-* · न्यानं अव्यर सुरयं न्यानं संसार सरनि मुक्कं च । अन्यान मिच्छ सहियं, न्यानं आवरन नरय वासम्मि ॥ ३२७ ॥ अन्वयार्थ - (न्यानं अष्यर सुरयं) ज्ञान अक्षर रूप अविनाशी है व ज्ञान ही अक्षय सूर्य सम स्व पर प्रकाशक है (न्यानं संसार सरनि मुक्कं च) ज्ञान ही संसार के परिभ्रमण से छुड़ाने वाला है (अन्यान मिच्छ सहियं) परंतु यदि ज्ञान मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान सहित हो तो (न्यानं आवरन नरय वासम्मि) यह ज्ञान का आवरण नरक में वास कराता है। विशेषार्थ आत्मा ज्ञान स्वरूप है, ज्ञान ही आत्मा है, ज्ञान अविनाशी है व सूर्य के समान प्रकाशमान है, आत्मज्ञान ही संसार के भ्रमण से छुड़ाने वाला है। - जिनवाणी अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ रूप वस्तु के स्वरूप को बताने वाली है। इसके माध्यम से जो अपने सत्स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान करते हैं वे जीव संसार के परिभ्रमण से छूट जाते हैं। स्वरूप की विस्मृति रूप अज्ञान मिथ्यात्व सहित यह जीव आत्मा ज्ञानावरण होने से नरक में वास करता है। ज्ञानस्वरूप आत्मा पर अज्ञानरूप आवरण होना ही ज्ञानावरण है यही संसार परिभ्रमण कराता है। अक्षर स्वर व्यंजन रूप आगम से अपने आत्म स्वरूप का बोध होता है, जो जीव इसका विपरीत अभिप्राय पकड़ता है, दुरुपयोग करता है, वह ज्ञानावरण कर्म का बंध कर नरक में वास करता है। अक्षर, अक्षय स्वरूप ज्ञान सूर्य का बोध कराता है, आत्मा अक्षय अविनाशी ज्ञान सूर्य ज्ञानानंद स्वभावी परमब्रह्म परमात्मा है परंतु अपने अज्ञान और मिथ्यात्व सहित ज्ञानावरण से संसार परिभ्रमण और नरक में वास करता है। स्वरूप की विस्मृति अज्ञान है और यह शरीर ही मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं तथा मैं इन सबका कर्ता हूँ, ऐसी विपरीत मान्यता ही मिध्यात्व है, यही बंध और संसार परिभ्रमण का कारण है । केवली भगवान की दिव्य ध्वनि में संपूर्ण रहस्य एक साथ अनावृत होता है । उत्कृष्ट श्रोता के समझने की जितनी योग्यता हो उतना संपूर्ण विषय भगवान की वाणी में एक साथ आता है। जिनवाणी अक्षर, स्वर, व्यंजन, पद, अर्थ रूप अपने सत्स्वरूप का बोध कराती है, इसके विपरीत जो अज्ञान *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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