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________________ गाथा- ३२५,३२६***** * * * ** त्र E- E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी निश्चय से आत्मा शुद्ध है परंतु उसकी पर्याय में रागादिक अशुद्धता 4 होने पर भी जो पर्याय अपेक्षा से वर्तमान में शुद्ध मानता है वह मिथ्यादृष्टि * है। मोक्षमार्ग में तो रागादिक मिटाने का श्रद्धान ज्ञान व आचरण करना होता * है। जिसके द्वारा विकार का नाश हो वही मोक्षमार्ग है। श्रद्धा में रागादि कर्ममल * विकार का आदर नहीं, ज्ञान में विकार नहीं तथा आचरण में राग ही न करे यही मोक्षमार्ग है। प्रश्न - ऐसे मार्ग की उपलब्धि और निर्वाण की प्राप्ति कैसे होती है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंन्यानं च परम न्यानं, न्यानं विन्यान न्यान सहकारं। अव्यर सुर विजन रूवं, विन्यानं जानंति अप्प परमप्यं ॥ ३२५ ॥ अव्यर अषयं रूवं, अषय पदं अषय सुद्ध सभावं । अषयं च ममल रूवं, ममल सहावेन निव्वुए जति ॥ ३२६ ।। अन्वयार्थ- (न्यानं च परम न्यानं) ज्ञान परमज्ञान केवलज्ञान स्वरूप है और यही श्रेष्ठ इष्ट है (न्यानं विन्यान न्यान सहकारं) भेदविज्ञान से उस ज्ञान को जानना केवलज्ञान की प्रगटता का कारण है (अष्यर सुर विजन रूवं) वह ज्ञान जिस आगम जिनवाणी से होता है वह अक्षर स्वर व्यंजन स्वरूप है (विन्यानं जानंति अप्प परमप्पं) भेदविज्ञान से ही मैं आत्मा परमात्मा हूँ यह जानने में आता है। (अष्यर अषयं रूवं) अक्षर अपना अक्षय स्वरूप है (अषय पदं अषय सुद्ध सभावं) वही अक्षय पद अविनाशी अक्षय शुद्ध सत्ता स्वरूप है (अषयं च ममल रूवं) जो अक्षय स्वभाव है वही ममल स्वभाव है (ममल सहावेन निव्वुए जंति) ऐसे ममल स्वभाव के आश्रय से निर्वाण की प्राप्ति होती है। विशेषार्थ - आत्मा का स्वभाव केवलज्ञान मयी है, यही श्रेष्ठ और इष्ट * है, इस पर ज्ञानावरण कर्म का आवरण है इसलिये प्रगट नहीं है। उस आवरण *को हटाने का उपाय भेदविज्ञान द्वारा ज्ञान स्वभाव को स्वीकार करना है। जो * जिनवाणी के द्वारा भेदविज्ञान पूर्वक अपने स्वरूप को जानते हैं कि मैं आत्मा परमात्मा हूँ, ऐसे अक्षर स्वरूप जिनवाणी के माध्यम से जो अपने अक्षय स्वरूप को जानते हैं कि आत्मा अक्षय अविनाशी शुद्ध सत्ता स्वरूप है, जो अक्षय स्वभाव है वही ममल स्वभाव है,ऐसे ममल स्वभाव के आश्रय से समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं इसी से निर्वाण की प्राप्ति होती है। आत्मा अक्षय अविनाशी केवलज्ञान स्वभावी शुद्ध सत्ता स्वरूप है, आत्मा कभी जन्म नहीं लेता और न कभी मरता है। जन्म लेना तो दूर परंतु आत्मा तो राग को उत्पन्न करने में भी निमित्त नहीं है। आत्मा चिदानंद त्रिकाल ध्रुवतत्त्व है। भेदविज्ञान पूर्वक अपने सत्ता स्वरूप को जानने पर ज्ञान विकसित होता है, आत्मा की शक्ति तो तीनकाल व तीनलोक को जानने की है, उसमें ज्ञान जितने अंश में ज्ञानरूप वेदन करे उतना ज्ञान का विकाश हुआ, वह विकसित अंश ही सर्वज्ञ शक्ति प्रगट करता है। सर्वज्ञ शक्ति तो त्रिकाल है उसका वेदन हुआ है। सर्वज्ञ शक्ति के आधार से ही स्व संवेदन होता है। जिसे धर्म का आदर है, सिद्ध पद की चाह है उसे लक्ष्मी की रुचि नहीं होना चाहिये, सिद्ध स्वरूप को वंदन करने वाला अन्य को वंदन नहीं करता। संसार की रुचि वाले जीव को मुक्ति की रुचि नहीं होती, अज्ञानी को बाह्य की क्रिया तथा शुभ परिणाम सुगम लगते हैं तथा वह उन्हीं में मोक्षमार्ग मानता है। अंतर शुद्ध द्रव्य एकरूप, निष्क्रिय, ध्रुव, चिदानंद सो निश्चय तथा उसके अवलंबन से प्रगट हुई निर्विकल्प मोक्षमार्ग दशा व्यवहार है। अध्यात्म का ऐसा निश्चय-व्यवहार स्वरूप ज्ञानी ही जानता है, अज्ञानी नहीं जानता। मोक्षमार्ग तो वीतराग भाव है अत: जिन शास्त्रों में किसी भी प्रकार से राग-द्वेष मोह भावों का निषेधकर वीतराग भाव प्राप्ति का प्रयोजन प्रगट किया हो वे शास्त्र ही पढ़ने व सुनने योग्य हैं। भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का यथार्थ श्रद्धान कर मैं ज्ञानानंद स्वभावी ध्रुवतत्त्व शुद्धात्मा हूँ, ऐसे अंतर स्वभाव के संग से शुद्धोपयोग होता है । दया, छ दान अथवा भगवान के संग से शुद्धोपयोग नहीं होता। शुद्धोपयोग साधन है व उसका कार्य परमात्म पद मुक्ति की प्राप्ति है। प्रश्न - जब आत्मा अक्षय स्वभावी अविनाशी सिद्ध स्वरूप है, केवलज्ञान स्वभावी है फिर वह संसार में कर्मादि संयोग में कैसे फंसा है? समाधान - निज सत्स्वरूप की विस्मृति, दृष्टि के विपरीत श्रद्धान, मिथ्यादृष्टि मिथ्याज्ञान से स्वयं ही संसार कर्मादि में फंसा है। अज्ञानी जीव *KHELKER १९०
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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