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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं।
प्रश्न- यह सिद्धि की संपत्ति क्या है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
ममलं ममल सहावं, ममलं ममलं च लब्ध सभावं । अन्मोयं ममल स उत्तं, ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं ।। ३२२ ॥ अन्वयार्थ (ममलं ममल सहावं) आत्मा का स्वभाव ममल, सर्व कर्म मलों से रहित ममल ही है अर्थात् जिसमें कभी कर्म मलों का प्रवेश ही नहीं हुआ है (ममलं ममलं च लब्ध सभावं) ममल स्वभाव अर्थात् जिसमें कभी कर्म मल लगे ही नहीं हैं, जो सर्व द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मों से न्यारा पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध स्वरूप है, ऐसे स्वभाव को प्राप्त होने से अर्थात् ज्ञान, श्रद्धान करने से (अन्मोयं ममल स उत्तं) उसी का आश्रय अनुमोदना करने से, लीन रहने से कहते हैं कि (ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं) इसी ममल स्वभाव से सिद्धि की संपत्ति अर्थात् परमानंद, परमात्म पद अरिहंत सिद्ध दशा प्रगट होती है।
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विशेषार्थ आत्मा का अपने परमसुख, परमशांति, परमानंद में रहना, पंचज्ञान, परमेष्ठी पद प्रगट होना, धर्म का अतिशय जगत में जय-जयकार मचना, अरिहंत सिद्धपद प्रगट होना ही सिद्धि की संपत्ति है और यह सब अपने ममल स्वभाव की साधना करने से उपलब्ध होती है।
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आत्मा परिपूर्ण शुद्ध ममल स्वभाव ही है परंतु जहाँ तक पुद्गल कर्म का आत्मा के साथ संयोग है वहाँ तक मल स्वभाव झलकता है, दिखाई देता है । जैसे- स्फटिक मणि पूर्ण शुद्ध श्वेत है परंतु किसी वस्तु का संयोग होने से उस वस्तु का संयोगिक वर्ण झलकता है, उसी तरह आत्मा स्वभाव से शुद्ध है, कर्म के संयोग से ही रागादि विभाव आत्मा में प्रगट होता है, कर्म संयोग हटते ही आत्मा निर्मल स्फटिक के समान शुद्ध ममल स्वभाव में रह जाता है इसे ही सिद्ध स्वरूप सिद्ध परमात्मा कहते हैं ।
अपने ममल स्वभाव का निश्चय श्रद्धान ज्ञान होने पर उसके आलम्बन, आश्रय करने पर फिर कभी कर्म बंध नहीं होता है। पुद्गल परमाणु कर्म वर्गणायें लोक में ठसाठस भरी रहें तथापि अबंध वर्गणायें कुछ भी विकार व आवरण आत्मा में नहीं कर सकती हैं। जैसे-आकाश का पर द्रव्य कोई बिगाड़
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गाथा ३२२-३२४*-*-*-*-*
नहीं कर सकते, वैसे ही ममल स्वभाव रूप सिद्धात्मा का पर द्रव्य कोई बिगाड़ नहीं कर सकता, ऐसे ममल स्वभाव के आश्रय से यह सिद्धि की संपत्ति, अरिहंत सिद्ध दशा प्रगट होती है।
प्रश्न- यह अरिहंत दशा में क्या होता है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
नंत चतुस्टय जुतं, अवसय पडिहार ममल न्यानं च । चौदस प्रान संजुतं न्यानं अन्योय सिद्धि संपत्तं ।। ३२३ ।। न्यानं दंसन सम्म, दानं लाभं च भोय उवभोयं ।
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वीज सम्मत्त सुचरनं, लब्धि संजुत्त सिद्धि संपत्तं ॥ ३२४ ॥
अन्वयार्थ - (नंत चतुस्टय जुत्तं ) श्री अरिहंत परमात्मा सशरीर अनंत चतुष्टय अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंतवीर्य से युक्त होते हैं (अयसय पडिहार ममल न्यानं च) चौंतीस अतिशय से युक्त होते हैं (चौदस प्रान संजुत्तं) चौदह प्राणों से संयुक्त होते हैं (न्यानं अन्मोय सिद्धि संपत्तं ) ज्ञानानंद स्वभाव में लीन हो वे सिद्ध दशा को प्राप्त होते हैं।
(न्यानं दंसन सम्म) अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन (दानं लाभं च भोय उवभोयं) अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग और अनंत उपभोग (वीर्जं सम्मत्त सुचरनं) अनंतवीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र (लब्धि संजुत्त सिद्धि संपत्तं) इन नौ क्षायिक लब्धियों सहित वे अरिहंत, सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं ।
विशेषार्थ - श्री अरिहंत परमात्मा सशरीर अनंत चतुष्टय के धारी केवलज्ञानी सर्वज्ञ स्वभावी होते हैं जो अपने परमानंद मयी ममल ज्ञान स्वभाव में लीन रहते हैं। चौदह प्राणों से संयुक्त होते हैं, चौंतीस अतिशय और अष्ट प्रातिहार्य प्रगट हो जाते हैं, जगत में जय-जयकार मचती है, सौ इन्द्र सेवा करते हैं, देवता उत्सव मनाते हैं। नौ क्षायिक लब्धि - अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य तथा क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र यह नौ लब्धियाँ प्रगट हो जाती हैं। घातिया कर्मों के क्षय होने पर आत्मा के यह स्वाभाविक गुण प्रगट हो जाते हैं और अघातिया कर्म के क्षय होने पर शरीर से रहित पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाते हैं।
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