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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अनादिकाल से जीव का अज्ञान दशा में कर्मों का एक क्षेत्रावगाह निमित्तनैमित्तिक सम्बंध रहा है। निज स्वरूप का बोध निज शुद्धात्मानुभूति रूप सम्यक् दर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्र होने पर कर्मों का संबंध छूट जाता है और यह जीव आत्मा परमात्मा हो जाता है।
यह आत्मा है सो ज्ञायक अखंड स्वरूप है, राग, कर्म व शरीर तो उसके नहीं हैं, जड़ इन्द्रियां तो उसकी नहीं हैं लेकिन भावेन्द्रिय व भावमन भी उसके नहीं हैं। एक-एक विषय को जानने वाली ज्ञान की पर्याय खंड-खंड ज्ञान है, यही पराधीनता है, परवशता है, दुःख है जो दश प्राण रूप है। निज प्राण जिनसे आत्मा सदाकाल जीता है वह सुख, सत्ता, बोध, चैतन्य चार प्राण हैं। भगवान आत्मा पूर्णानंद से परिपूर्ण स्वभाव है, इस स्वभाव के साधन से ही परम निर्वाण की प्राप्ति होती है।
प्रश्न जब अनादिकाल से जीव का और कर्मों का सम्बंध है। फिर यह कर्म क्षय कैसे होते हैं और कैसे दिला जाते हैं ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - विलय सुभाव स उत्तं, कम्म निबंधाइ कम्म विलयंति । ममल सुभावं दिहं, अन्मोयं ममल सिद्धि संपतं ॥ ३२० ॥ कम्म सुभावं विलयं, सिद्ध सहावेन ममल न्यानस्य । अन्मोर्य उवएस परम जिनं ममल सिद्धि संपतं ।। ३२१ ।।
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अन्वयार्थ - (विलय सुभाव स उत्तं) विलय स्वभाव उसे कहते हैं (कम्म निबंधाइ कम्म विलयंति) जो पूर्व के बंधे हुए कर्म हैं यह विला जाते हैं, क्षय हो जाते हैं (ममल सुभावं दिट्टं ) ममल स्वभाव को देखने से अर्थात् ममल स्वभाव की दृष्टि तथा उसमें लीनता होने से (अन्मोयं ममल सिद्धि संपत्तं ) ममल स्वभाव के आलंबन से सिद्धि की संपत्ति प्राप्त हो जाती है अर्थात् सारे कर्म बंध क्षय हो जाते हैं, विला जाते हैं।
(कम्म सुभावं विलयं) कर्मों का स्वभाव क्षय होने का है (सिद्ध सहावेन ममल न्यानस्य) आत्मा सिद्ध स्वरूप ममल स्वभाव ज्ञानमात्र है (अन्मोयं उवएस परम जिनं) ऐसे परमजिन परमात्मा के उपदेश की अनुमोदना, आश्रय, सत्श्रद्धान करने से (ममल सिद्धि संपत्तं) रागादि कर्मों से छूटकर अपने ममल स्वभाव सिद्धि की संपत्ति प्रगट हो जाती है ।
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गाथा ३२०, ३२१****
विशेषार्थ कर्मों का स्वभाव नित्य स्थायी नहीं है, पूर्व कर्म बंध या तो अपना फल देकर विलय होते हैं या ध्यान के बल से विलय होते हैं । पुद्गल परमाणु जो कर्मरूप बंधते हैं वह कार्माण वर्गणा कहलाते हैं, पुद्गल का स्वभाव ही गलन पूरण है।
जब तक कर्म आत्मा के साथ बंध रूप रहते हैं तब तक उनकी कर्म संज्ञा रहती है। जब उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है तब उन कर्मों का कर्मत्व चला जाता है, कर्मवर्गणा पुद्गल रूप रह जाती है, जैसे बंध के पहले थी। जैसे- अनादि से स्वर्ण और पाषाण एक साथ मिले हुए हैं उनका शोधन करने पर भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, वैसे ही आत्मा और कर्म अनादि से एक साथ मिले हैं, भेदविज्ञान करने पर भिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
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कर्म का बंध चार प्रकार से होता है प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग । मन वचन काय की योग प्रवृत्ति से प्रकृति और प्रदेश बंध होता है तथा आत्मा के विभाव परिणाम कषाय से स्थिति, अनुभाग बंध होता है परंतु यह सब मर्यादित क्षणभंगुर नाशवान होता है। अज्ञानी जीव को स्व स्वरूप का बोध भेदज्ञान न होने से वह पुनः पुनः कर्म बंधन से बंधता रहता है। जिस जीव को भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का यथार्थ श्रद्धान ज्ञान हो जाता है वह इन कर्म बंधनों से छूट जाता है। जैसे- स्वर्ण को अग्नि में डालकर, गलाकर, तपाकर सोलह ताप के देने से सर्व किट्ट कालिमा से रहित हो चमक उठता है तब फिर अशुद्ध नहीं रहता है, वैसे ही यह आत्मा भेदविज्ञान पूर्वक अपने ममल स्वभाव की साधना करने से धर्म शुक्ल ध्यान आदि के द्वारा सर्व कर्म मलों से रहित परम सिद्ध परमात्मा हो जाता है फिर नित्य अपने स्वभाव में रमण करता है।
आत्मा के अज्ञान रूप परिणमन राग-द्वेष भाव से कर्म बंध होता है और मोह भाव से भोगता है। जब अपने ज्ञान स्वरूप ममल स्वभाव का बोध जाग जाता है तब अपने ममल स्वभाव को देखने और ममल स्वभाव में रहने से सब कर्म बंध क्षय हो जाते हैं, विला जाते हैं। परम वीतरागी केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा जिनेन्द्र परमात्मा ने ऐसा उपदिष्ट किया है, वह स्वयं भी इसी प्रकार पूर्ण शुद्ध परमात्मा हुए हैं और यही उपदेश जगत के समस्त भव्यजीवों के लिये दिया है, जो जीव अपने सिद्ध स्वरूप ममल स्वभाव का निश्चय श्रद्धान ज्ञान कर तद्रूप आचरण करते अर्थात् अपने ममल स्वभाव में रहते हैं वह सर्व कर्म बंधनों से रहित होकर सिद्धि की सम्पत्ति प्राप्त करते हैं अर्थात् पूर्ण
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