________________
गाथा-३१८,३१९
----------
M H -28-28 श्री उपदेश शुद्ध सार जी
उनकी क्रियायें कोई नहीं होती हैं, सर्व ही भाव कर्म नहीं रहते हैं। सिद्ध दशा में कोई भी कर्म, योग, कषाय आदि नहीं रहते हैं फिर किसी अन्य गति में गमनागमन नहीं होता है, सबके सब कर्म क्षय हो जाते हैं, वह सिद्ध स्वरूप निश्चल अविनाशी रहता है।
पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण शुद्धात्म तत्त्व पर दृष्टि करने से उसी के आलम्बन से पूर्णता प्रगट होती है और यह शरीरादि कर्म संयोग घट जाते हैं। इस अखंड द्रव्य का आलंबन, वही एक अखंड परम पारिणामिक भाव का आलम्बन है। औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भाव रूप पर्यायों का आलंबन नहीं होता । सामान्य के आश्रय से ही शुद्धता प्रगट होती है इसलिये सब छोड़कर एक शुद्धात्म तत्त्व अखंड परम पारिणामिक भाव के प्रति दृष्टि करने से सब कर्म संयोग छूट जाते हैं।
अज्ञानी जीव ऐसे भाव से वैराग्य करता है कि यह सब क्षणिक है, सांसारिक उपाधि दुःखरूप है परंतु उसे मेरा आत्मा ही आनंद स्वरूप है ऐसे अनुभवपूर्वक सहज वैराग्य नहीं होने के कारण सहज शांति परिणमित नहीं होती। वह घोर तप करता है परंतु कषाय के साथ एकत्व बुद्धि नहीं टूटी होने से आत्म प्रतपन प्रगट नहीं होता और न ही कर्म संयोग छूटते हैं।
सम्यक्दृष्टि को भले स्वानुभूति अभी पूर्ण नहीं है परंतु दृष्टि में परिपूर्ण ध्रुव आत्मा है। ज्ञान परिणति द्रव्य तथा पर्याय को जानती है परंतु पर्याय पर जोर नहीं है, दृष्टि में अकेला स्व की ओर का लक्ष्य होने से सब कर्म गल जाते हैं।
प्रश्न - कर्म संयोग छूटने पर क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंचौदस प्रान उववन्न, उववन्नं ममल केवलं न्यानं । केवल दर्सन दस, नंत चतुस्टै सुभाव संतुस्ट । ३१८ ॥ नंतानंत सुदिहं, लोयं अवलोय लोकनं भावं । आनन्दं परमानन्दं, परमप्या परम निव्वुए जंति ॥ ३१९ ॥
अन्वयार्थ - (चौदस प्रान उववन्न) चौदह प्राण उत्पन्न हो जाते हैं। * दस प्राण संसारी संज्ञी जीव को होते हैं, केवलज्ञानी को चार प्राण-सुख,
सत्ता, बोध, चेतना विशेष प्रगट हो जाते हैं (उववन्नं ममल केवलं न्यानं)
ममल स्वभाव केवलज्ञान स्वरूप प्रगट हो जाता है (केवल दर्सन दर्स)
केवलदर्शन ही दिखता है अर्थात् केवल स्वस्वरूप ही दिखता है (नंत चतुस्टै @ सुभाव संतुस्ट) अनंत चतुष्टय-अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य स्वरूप निज स्वभाव में संतुष्ट परिपूर्ण हो जाता है।
(नंतानंत सुदि8) केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वभाव में अनंतानंत द्रव्य, गुण, पर्याय दिखने लगते हैं, झलकते हैं (लोयं अवलोय लोकनं भावं) लोक व अलोक को देखने योग्य शक्ति प्रगट हो जाती है अर्थात् लोकालोक प्रकाशित हो जाता है (आनन्दं परमानन्दं) निरंतर आनंद परमानंद में रहते हुए (परमप्पा परम निव्वुए जंति) परमात्मा परम निर्वाण सिद्ध दशा को उपलब्ध हो जाते हैं।
विशेषार्थ- संसारी जीव को कर्म संयोग शरीर संबंध से दश प्राण होते हैं. पांच इंद्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण । तीन बल-मन, वचन, काय तथा श्वासोच्छ्वास और आयु, यह दश प्राण पर्याय अनुसार होते हैं। घातिया कर्मों के क्षय होने, ज्ञान चेतना के जागने पर, सुख, सत्ता, बोध,
चैतन्य यह चार प्राण निज स्वरूप के प्रगट हो जाते हैं इस प्रकार केवलज्ञानी ॐ परमात्मा चौदह प्राणों के धारी होते हैं, ममल स्वभाव केवलज्ञान स्वरूप
प्रगट हो जाता है जहां के वल निजस्वरूप ही दिखता है तथा अनंत चतुष्टय-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य स्वरूप निज स्वभाव परिपूर्ण प्रगट हो जाता है।
केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वभाव में तीन लोक के त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य गुण पर्याय का परिणमन झलकने लगता है। लोकालोक को जानने की शक्ति प्रगट हो जाती है। सशरीर केवलज्ञानी परमात्मा निरंतर आनंद परमानंद में रहते हैं, अघातिया कर्मों के क्षय होने पर परिपूर्ण शुद्ध, मुक्त, सिद्ध परमात्मा परम निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं।
जब आत्मा घातिया कर्म रहित हो जाता है तब उसके मन वचन काय की कोई क्रिया नहीं रहती है। वह परिपूर्ण शुद्ध स्वभाव में केवलज्ञानी सर्वज्ञ परमात्मा हो जाता है, अनंत चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं। शेष अघातिया कर्म, शरीर संबंध छूटने पर सिद्ध परमात्मा अपने स्वभाव में निश्चल विराजते हैं। गमनागमन से रहित वह सिद्ध गति निश्चल अविनाशी रहती है जहाँ निरंतर षद्गुणी आनंद की वृद्धि होती रहती है। परमात्मा परम सुख परम शांति परम आनंद में रहते हैं उनका परम निर्वाण हो जाता है।
-
北京市革命
--------