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________________ ---- ------- श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा - ३१६,३१७* ** -----HE * संसार परिभ्रमण के कारण राग-द्वेष, मोह भाव अज्ञानभाव हैं, यह भी ज्ञान स्वभाव के प्रकाश से गल जाते हैं। सारे ही कर्म आने-जाने वाले, क्षय होने वाले हैं। चौथे शुक्ल ध्यान से सब अघातिया कर्म भी गल जाते हैं, मात्र एक अविनाशी ज्ञानानंद स्वभाव रह जाता है, यह ही नित्य है, इसी को लिये हुए निर्वाण हो जाता है। कर्म बंध कारक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, यह ही अनर्थकारी हैं, यह सब गलनशील हैं, गल जाते हैं। मिथ्याज्ञान अज्ञान से जो संसार में सहकारिता, आलंबन भाव था, वह भी सम्यक्ज्ञान से जाता रहता है। सर्व ही पुद्गल का संयोग तैजस, कार्माण, औदारिक, वैक्रियक, आहारक शरीर, भाषा वर्गणा तथा मन यह सब छूट जाते हैं। पुद्गल स्वभाव से ही गलन पूरण स्वभाव वाला है। रूपी पदार्थ, अशुद्ध पर्याय सब गलने वाली हैं। पुद्गल का मूल स्वभाव शुद्ध परमाणु है। स्कंधरूप सारा परिणमन गलने वाला नाशवान है। पुद्गल कर्मादि से सर्वथा छूटने पर आत्मा का एक अविनाशी शुद्ध स्वभाव रह जाता है, उसी को लिये हुए यह मोक्ष चला जाता है। प्रश्न- जब आत्मा सिद्ध के समान शुद्ध मुक्त है फिर यह शरीरादि कों का संयोग संबंध क्यों और कैसा है? समाधान - आत्मा स्वभाव से सिद्ध के समान शुद्ध मुक्त है परंतु अपने ऐसे सत्स्वरूप का विस्मरण रूप अज्ञान होने से शरीरादि कर्मों से अनादि काल से निमित्त-नैमित्तिक संयोग संबंध है। अज्ञान से मिथ्यात्व द्वारा यह शरीर ही मैं हूँ. यह शरीरादि कर्म संयोग विभाव आदि मेरे हैं और मैं इन सबका कर्ता हूँ. ऐसी मिथ्या मान्यता से यह सब संसार परिभ्रमण चल रहा है। जीव के अज्ञान जनित भाव के निमित्त से पुद्गल परमाणु कर्मादिरूप परिणमन करता है और कर्मोदय से यह सब मोह, राग-द्वेष शरीरादि संयोग होते हैं। प्रश्न-इनसे छुटकारा कैसे होगा? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंगलियं मनस्य रुचियं, गलियं वचनस्य असुह सुह जननं । कल लंछित का सुगलियं, गलिय सभाव काम नहु पिच्छं॥ ३१६ ॥ गलियं गमनागमनं, गलियं च कप्प वियप्प सम्बंधं। गलियं मान कषाय, गलिय कम्मान सव्वहा सव्वे ॥३१७॥ अन्वयार्थ-(गलियं मनस्य रुचियं) मन की रुचि गल जाती है (गलियं वचनस्य असुह सुह जननं) वचन की शुभ-अशुभ रूप प्रवृत्ति गल जाती है (कल लंकित कंम सुगलियं) शरीर सम्बंधी क्रिया भी बंद हो जाती है (गलियं सभाव कम्म नहु पिच्छं) सब भाव भी गल जाते हैं, बस इन कर्मों की तरफ मत देखो। (गलियं गमनागमनं) आना-जाना सब बंद हो जाता है (गलियं च कप्प वियप्प सम्बंध) संकल्प-विकल्प रूप सम्बंध भी सब छूट जाता है (गलियं मान कषायं) मान कषाय अहं भाव भी गल जाता है (गलिय कम्मान सव्वहा सव्वे) सारे के सारे कर्म अपने आप गल जाते हैं। विशेषार्थ- कर्मों से छुटकारा पाने के लिये दृष्टि का परिवर्तन आवश्यक है, जब तक दृष्टि पर पर्याय की तरफ रहेगी तब तक कर्मों का आस्रव बंध होगा, जब दृष्टि अपने शुद्ध ममल स्वभाव ध्रुवतत्त्व की होगी तब कमों का संवर और निर्जरा होगी। अपने स्वस्वरूप शुद्धात्म तत्त्व की ओर दृष्टि होने से तथा यह शरीरादि कर्म संयोग की ओर न देखने से, इन्हें कोई महत्व मान्यता न देने से मन की सारी उठा पटक बंद हो जाती है। वचनों का शुभ-अशुभ रूप परिणमन गल जाता है, शरीर संबंधी क्रिया भी छूट जाती है, सारे भाव विभाव भी गल जाते हैं। सब आना-जाना छूट जाता है, सारे संकल्प-विकल्प संयोग सम्बंध छूट जाते हैं, सब अहं भाव मान कषाय गल जाती है। दृष्टि स्व स्वभाव में होने से सब के सब कर्म छूट जाते हैं। ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म से अंतर बाह्य स्थिति, अनुकूलता-प्रतिकूलता रूप संयोग सम्बंध होता है । राग-द्वेष, मोह रूप भावकर्म से शुभाशुभ भाव होते हैं। शरीरादि रूप नोकर्म से शरीर संयोग संबंध होता है। कर्म का आसव बंध, जीव के अज्ञान रूप मिथ्यादृष्टिपने से होता है । कर्मों का संवर और निर्जरा, जीव के ज्ञान स्वरूप सम्यकदृष्टि होने से होती है । वर्तमान कर्म संयोग से दृष्टि हटाने, इन्हें कोई महत्व मान्यता न देने से, यह सब कर्म * संयोग छूट जाते हैं, गल जाते हैं। केवलज्ञान होने पर यह मन वचन काय व 器各言长长条号 THEHER eHHHHHI
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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