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****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा-३१३-३१५---------
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और दर्शन मोहांध गल जाता है, नष्ट हो जाता है यही मुक्तिमार्ग है।
जितनी पर्यायें या अवस्थायें उत्पन्न होती हैं वह सब व्ययशील या * गलित स्वभाव हैं । सम्यक्दर्शन से दर्शन मोहांध मिथ्यात्व गल जाता है, 2 सम्यज्ञान से कुज्ञान गल जाता है, सम्यक्चारित्र से सब कर्म गल जाते हैं।
जैसे-तूम्बी को मिट्टी लपेट कर पानी में डालने से मिट्टी अपने आप गल जाती है, छूट जाती है। इसी प्रकार शरीरादि कर्म संयोग अपने आप गलते विलाते छूटते जाते हैं, इनसे दृष्टि हटना मुक्तिमार्ग है। इनकी ओर दृष्टि लगी रहना पुन: कर्म बंध का कारण है।
आत्मा ज्ञान स्वभावी है अत: जो जो प्रसंग बनें उनमें ज्ञान करने का अवसर होने पर भी उनका ज्ञान करने के बदले, ज्ञेय ज्ञान के भेदज्ञान से शून्य होने के कारण, स्वयं को ज्ञेय रूप जानता हुआ अज्ञान रूप परिणमित होता है। रागादि कर्म ज्ञेय पदार्थ मेरे हैं ऐसा जानता हुआ अज्ञानी उनका कर्ता बनता है, इससे पुनः कर्म बंध होता है, ज्ञानी सम्यकदृष्टि इन कर्मादि । पर्याय, पर संयोग से दृष्टि हटा लेता है, इससे यह कर्मादि पर्याय अपने आप गलती नष्ट होती जाती है, यही मुक्तिमार्ग है ; और जितने भी अज्ञान जनित विभाव परिणाम हैं वह सब भी गलने वाले, नष्ट होने वाले हैं। इसी संदर्भ की गाथा आगे कहते हैं
गलिय सहावं उत्तं, गलियं सल्लं च राग दोसं च। गारव गलिय अनिस्ट, न्यान सहावेन मुक्ति गमनं च ॥३१३ ॥ गलियं घाय चउक्कं, गलियं संसार सरनिसहकारं। गलियं कम्म स उत्त, न्यान सहावेन जति निव्वान ।। ३१४ ॥ गलियं अर्थ अनर्थ, गलियं अन्मोय अन्यान सहकारं। गलियं पुग्गल रूवं, न्यान सहावेन मुक्ति गमनं च ॥३१५॥
अन्वयार्थ - (गलिय सहावं उत्तं) गलित स्वभाव, क्षणभंगुर नाशवान प्रभाव और वस्तुओं का कहा गया है (गलियं सल्लं च राग दोसं च) माया मिथ्या
निदान यह तीन शल्य तथा राग-द्वेष भी क्षणभंगुर नाशवान हैं, गल जाते हैं * (गारव गलिय अनिस्ट) अनिष्टकारी अहं भाव भी गल जाता है (न्यान सहावेन + मुक्ति गमनं च) आत्मा एक अविनाशी ज्ञान स्वभावी है, इसी के आश्रय से
मुक्ति की प्राप्ति होती है।
(गलियं घाय चउक्कं) चार घातिया कर्म भी गल जाते हैं (गलियं संसार सरनि सहकारं) संसार परिभ्रमण के सहकारी रागादि भाव भी गल जाते हैं (गलियं कम्म स उत्तं) और सर्व ही कर्म गल जाते हैं, ऐसा कहा है (न्यान सहावेन जंति निव्वानं) यह आत्मा ज्ञान स्वभाव में लय होने से ही निर्वाण को प्राप्त करता है।
(गलियं अर्थ अनर्थ) जितने अनर्थकारी भाव या संयोग हैं वे सब गल जाते हैं (गलियं अन्मोय अन्यान सहकारं) अज्ञान का आलंबन रखने, सहकार करने वाला भाव भी गल जाता है (गलियं पुग्गल रूव) पुद्गल रूप जितना भी प्रपंच, अशुद्ध पर्यायी परिणमन, रूपी पदार्थ है यह सब गलने वाला, नष्ट होने वाला है (न्यान सहावेन मुक्ति गमनं च) एक ज्ञान स्वभाव के आश्रय से ही आत्मा मुक्ति को जाता है।
विशेषार्थ-कोई ऐसा माने कि मेरे राग-द्वेष नहीं जायेंगे, मेरी शल्ये नहीं मिटेंगी, मेरा अहं भाव नहीं मिटेगा, उस जीव को समझने के लिये कहा है कि जितने कर्म जनित परभाव हैं वे सब मिट जाने वाले, गल जाने वाले, नष्ट होने वाले हैं। अपने ज्ञान स्वभाव में रहने से सर्व कर्म गल जाते हैं। जैसे- गर्म पानी की गर्मी अवश्य मिटेगी, गर्म लोहा अवश्य ठंडा होता है, इसी तरह जब सम्यकदृष्टि ज्ञानी आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव में रहता है, तब उसकी शल्ये छूट जाती हैं, अहं भाव नहीं रहता है व जैसे-जैसे वीतरागता की वृद्धि होती है राग-द्वेष गलता मिटता जाता है।
आत्मा एक अखंड अविनाशी ज्ञान स्वभावी ध्रुवतत्व शुद्धात्मा है, सिद्ध के समान शुद्ध ममल स्वभावी चिदानंद चैतन्य आत्मा है। प्रत्येक जीव स्वभाव से सिद्ध, शुद्ध मुक्त है। अपने स्वभाव का विस्मरण होने से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि संसारी बना है तथा अज्ञान द्वारा पर में एकत्व, अपनत्व, कर्तृत्व बुद्धि होने से पुद्गल का संयोग और कर्मावरण होने से आवृत हो रहा है, इसी कारण यह संसार परिभ्रमण चल रहा है ; परंतु यह सब छूट जाने वाला है, ज्ञान स्वभाव * के आश्रय अर्थात् सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र मय होने से मुक्ति होती है।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय यह चार घातिया कर्म भी गलन स्वभाव हैं, शुक्ल ध्यान के द्वारा यह भी बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं।
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