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________________ श-52-53-15-3-16-3-15-3-5 - श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-३११,३१२-H-H -2 जिनेन्द्र देव कहते हैं। यह शरीर, परिवार, धन, वैभव ऐसा तू देखता है परंतु गलियं सभाव उत्तं, गलिय कम्मान तिविहि जोएन । यह सब तो तेरे से अत्यंत भिन्न परद्रव्य हैं. इनसे भिन्न यह आत्मा चैतन्य गलिय परिनाम असुवं, गलियं विषयं च मिच्छ सभावं ॥ ३११ ॥ स्वरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, उसको देख तो तेरे मोह का तुरंत नाश हो जायेगा, * सब कर्म विला जायेंगे । तू शरीर को मत देख, आकृति को मत देख, पर को गलियं कुन्यानस उत्तं, गलियं परिनाम गलिय मोहंधं । मत देख, बाहर देखना बंद कर । यह सब तो तेरी पर्याय में जानने में आते हैं, न्यान सहावं सुद्ध, ममल सुभाव मुक्ति गमनं च ॥३१२॥ उस पर्याय को देखने वाली तेरी पर्याय दृष्टि को बंद कर दे और खुले हुए ज्ञान अन्वयार्थ- (गलियं सभाव उत्तं) गलनशील स्वभाव को कहते हैं के द्वारा निज चिदानंद चैतन्य भगवान आत्मा को देख जिससे तुझे परम सुख, (गलियं कम्मान तिविहि जोएन) त्रिविध योग मन, वचन, काय से दृष्टि हटने परम शांति, परमानंद मयी निज परमात्मा का दर्शन होगा, तू निहाल हो से कर्म गल जाते हैं (गलियं परिनाम असुद्ध) अशुद्ध भाव अर्थात् शुभाशुभ जायेगा, यही मुक्तिमार्ग है। भाव सब गल जाते हैं (गलियं विषयं च मिच्छ सभावं) विषयों की इच्छा व तीर्थकरों ने कहा बस, यह ही पुकार पुकार है। मिथ्यात्व भाव भी गल जाता है। यह आत्मा चैतन्यमय, आनंद मय अविकार है॥ (गलियं कुन्यान स उत्त) कुज्ञान भी गलनशील कहा गया है (गलियं यह वीतराग जिनेन्द्र सा, परमोत्कृष्ट महान है। परिनाम गलिय मोहंध) सारा परिणमन, पर्याय गलने वाली अर्थात् क्षणभंगुर जो आत्मा का हो गया, उसका हुआ निर्वाण है। है, दर्शन मोहांध भी गल जाता है (न्यान सहावं सुद्ध) आत्मा का शुद्ध ज्ञान चैतन्य मय ज्ञानमय है, यह हमारी आत्मा। स्वभाव अविनाशी है (ममल सुभाव मुक्ति गमनं च) ममल स्वभाव से मुक्ति यह शुद्ध है यह बुद्ध है, यह जिन यही परमात्मा । की प्राप्ति होती है। इस भावना से कर्म हो जाता है, उसी विधि चूर है। विशेषार्थ- आत्मा शाश्वत अविनाशी ध्रुव स्वभाव है, शेष सभी कर्मादि जैसे कि कहरि देख, हाथी भाग जाते दूर है॥ पर्याय गलने वाली क्षणभंगुर नाशवान हैं । आत्मा का ज्ञान स्वभाव चैतन्य चैतन्यमय आनंदमय, जो आत्मा परमात्मा । लक्षण कभी नहीं गलता, कभी नष्ट नहीं होता परंतु जीव के साथ जो पर पुद्गल का संयोग है तथा कर्म जनित भावों का संयोग है यह सब गलित ध्याओ उसे इस भांति, कमों का विखर जाये अमां ॥ स्वभाव है, छूट जाने वाला है। जब त्रिविध योग मन वचन काय की एकाग्रता, शुद्धात्मा से जो निकलता, ज्ञान का रे पुंज है। गुप्तिरूप आत्म समाधि में एकाग्र हुआ जाता है अर्थात् जब तीनों योग मन उपलब्ध हो जाता कि उससे मोक्ष ज्ञान निकुंज है। वचन काय से दृष्टि हटकर अपने स्वरूप में एकाग्र होती है तब सब कर्म गल दर्शनमोह को मंद किये बिना वस्तु स्वभाव ख्याल में नहीं आता और जाते हैं। अशुद्ध रागादि भाव, शुभाशुभ भाव भी गल जाते हैं, विषयों की दर्शन मोह का अभाव किये बिना आत्मा अनुभव में नहीं आता । स्व-पर इच्छा व मिथ्यात्व भाव भी गल जाते हैं। प्रकाश का पुंज प्रभु तो शुद्ध ही है, पर जो राग से भिन्न होकर उसकी उपासना संसार के समस्त पदार्थ और एक-एक समय की चलने वाली पर्याय करे, उसी के लिये वह शुद्ध है। समस्त परद्रव्य से भिन्न होकर स्व में एकाग्रता यह सब गलने वाली क्षणभंगुर नाशवान हैं। शरीर धन वैभव संयोग, सब करने से पूर्व कर्म बंधोदय गलते विलाते हैं, नवीन कर्म बंध नहीं होता यही छूटने वाला नष्ट होने वाला है। अज्ञान दृष्टि से देखने पर इनका अस्तित्व * मुक्तिमार्ग है। भासित होता है तथा मोह, राग-द्वेष होने से कर्म का बंध होता है। जब इन प्रश्न-कर्म बंधोदय अपने आप कैसे गलते हैं? सब पर संयोग मन वचन काय तथा एक समय की पर्याय से दृष्टि हटकर अपने इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - ज्ञान स्वभाव ममल स्वभाव को देखती है तब यह सब कुज्ञान, अशुद्ध पर्याय १८४ HTAKAM *长长长长 关多层多层司朵》卷卷
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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