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萃與·章出不出華业不常
-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
चिदानन्द आनंद, परम सभावेन कम्म संचिपनं ।
सीह सभाव सुदिनं, जं गयंद जूहेन दिडि विरयंति ॥ ३०९ ॥ तं सुभावस भावं परमं आनन्द चेयनं सहियं ।
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कम्मं तिविहि विमुक्कं ममलं न्यानेन सिद्धि संपत्तं ॥ ३१० ॥ अन्वयार्थ (चिदानन्द सभावं) आत्मा का स्वभाव चिदानंद, ज्ञानानंद स्वभाव है (उवइद्वं परम जिनवरेंदेहि) परम जिनेन्द्र तीर्थंकरों ने यह उपदिष्ट किया है (परम सहावं सुद्धं) आत्मा परम पारिणामिक भाव वाला परिपूर्ण शुद्ध है अथवा परम स्वभाव परमात्म स्वरूप परिपूर्ण शुद्ध है (चेयन आनन्द निव्वुए जंति) जो जीव अपने चिदानंद स्वभाव में मग्न होता है वही निर्वाण को प्राप्त करता है।
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(चिदानन्द आनंद) हमेशा ज्ञानानंद स्वभाव के आनंद में रहने से (परम सभावेन कम्म संषिपनं) परम पारिणामिक स्वभाव से कर्म क्षय हो जाते हैं अर्थात् परमात्म स्वभाव प्रगट होने पर सारे कर्म विला जाते हैं, जैसे (सीह सभाव सुदिट्ठ) सिंह को देखते ही, उसकी गर्जना सुनते ही (जं गयंद जूहेन दिट्टि विरयंति) हाथियों के झुंड दृष्टि से विला जाते हैं अर्थात् कोई दिखाई नहीं देते, सब भाग जाते हैं।
(तं सुभावस भावं) तुम्हारा स्वभाव तथा प्रत्येक जीव आत्मा का स्वभाव (परमं आनन्द चेयनं सहियं) परमानंद मयी चैतन्य स्वभावधारी है (कम्मं तिविहि विमुक्कं) तीनों प्रकार के कर्म- द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से विमुक्त भिन्न स्वतंत्र न्यारा है (ममलं न्यानेन सिद्धि संपत्तं) ऐसे ममल स्वभाव का ज्ञान श्रद्धान करने तद्रूप रहने से सिद्धि की संपत्ति, मुक्ति की प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ श्री जिनेन्द्र परमात्मा तीर्थंकर देवों ने यही बतलाया है कि हर एक आत्मा परमात्मा के समान शुद्ध चिदानंदमय परम पारिणामिक स्वभाव वाला अपने में परिपूर्ण शुद्ध है, जो जीव अपने चिदानंद स्वरूप का निश्चय श्रद्धान ज्ञान करके ध्यान मग्न होता है वही निर्वाण पाता है।
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हमेशा अपने ज्ञानानंद स्वभाव के आनंद में रहने से चिदानंदमयी परम स्वभाव का प्रकाश होने से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। जैसे- सिंह को देखते, उसकी गर्जना सुनते ही हाथियों के झुंड विला जाते हैं दिखाई ही नहीं देते हैं।
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गाथा ३०८-३१० *****
ऐसे ही अपने परम पारिणामिक स्वभाव में कोई कर्मादि दिखाई ही नहीं देते, सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
हे भव्य ! तुम्हारा स्वभाव तथा प्रत्येक जीव आत्मा का स्वभाव परमानंद मयी स्वभाव धारी परमात्मा है, वह तीनों प्रकार के कर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भावकर्म और शरीरादि नो कर्मों से विमुक्त स्वतंत्र न्यारा अपने में परिपूर्ण शुद्ध है, ऐसे ममल स्वभाव का ज्ञान श्रद्धान करने और तद्रूप रहने से सिद्धि की सम्पत्ति, मुक्ति की प्राप्ति होती है।
जो जिनेन्द्र हैं, वह ही मैं हूँ, निशंक होकर ऐसी भावना करो, यही मोक्ष का कारण है। शुद्धात्मा की भावना से मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, ऐसे दृढ़ निश्चय श्रद्धान से राग-द्वेष रूप भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नो कर्म क्षय हो जाते हैं । आत्मध्यान से ही के वलज्ञान होता है तब शीघ्र ही सिद्ध पद मिल जाता है ।
चिदानंद चैतन्य मेरा स्वरूप है उसी को मैं देखता हूँ, दूसरा कुछ मुझे दिखता ही नहीं है। ऐसा निज परम स्वभाव पर जोर आये, दृढ़ श्रद्धान हो तो सब कर्मादि विला जाते हैं। स्वयं में गया, एकत्व बुद्धि टूट गई, वहाँ सब रस ढीले हो गये । स्वरूप का रस प्रगट होने पर संसार का रस विला जाता है। न्यारा, सबसे न्यारा हो जाने से संसार कर्मादि सब क्षय हो जाते हैं। दृष्टि अपने ज्ञानानंद स्वभाव में मग्न होने पर परमानंदमयी परमात्म पद केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
यहाँ दृष्टि (उपयोग) की बात चलती है। उपयोग, चैतन्य का चिन्ह अर्थात् लक्षण है। उपयोग का स्वभाव देखने जानने का है, वह परज्ञेयों को नहीं अवलंबता है । स्वज्ञेय निज शुद्धात्म स्वरूप ममल स्वभाव को ही अवलंबता है, पर पदार्थ को ही मात्र लक्ष्य में लेकर पर के अवलंबन से प्रगट हुआ ज्ञान, वह ज्ञान ही नहीं है वह तो मिथ्याज्ञान है। जिस उपयोग को ज्ञेय पदार्थों का अवलंबन नहीं है परंतु अपने आत्मा का अवलंबन है ऐसा उपयोग लक्षण वाला तेरा आत्मा है। इस प्रकार अपने स्वज्ञेय को तू जान इससे सर्व पर द्रव्य, कर्मादि से दृष्टि हटकर अपने परम स्वभाव में लगने से मुक्ति होती है ।
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यह निज स्वरूप चिदानंद चैतन्य आत्मा प्रत्यक्ष है उसको देख ऐसा
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