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गाथा-३०५-३०८
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** * श्री उपदेश शुद्ध सार जी
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - चिदानन्द परिनाम, परिनवै न्यान विन्यान सहकारं । पर पर्जाव न दिटुं, परिनवै अन्मोय कम्म विपनं च ॥ ३०५॥ चिदानन्द विपिऊन, विपिओ कम्मान तिविहिजोएन। न्यान विन्यान सुभावं, लघु गुरुवं च न्यान अन्मोयं ॥ ३०६ ॥ न्यानं न्यान सहावं, न्यानं विन्यान कम्म संषिपनं । ममल सहावं उत्तं, न्यानेन न्यान ममल मिलियं च ।। ३०७॥
अन्वयार्थ - (चिदानन्द परिनाम) चिदानंद आत्मा का परिणाम (परिनवै न्यान विन्यान सहकार) जब भेदविज्ञान की सहायता से निज स्वभाव रूप परिणमन करता है (पर पर्जाव न दि8) तब पर पर्याय या अशुद्ध पर्याय रूप संसार नहीं दिखता है (परिनवै अन्मोय कम्म विपनं च) चिदानंद स्वभाव का आलंबन और उस रूप परिणमन होने से कर्मों का क्षय होता है।
(चिदानन्द षिपिऊन) चिदानंद स्वभाव ही कर्मों का क्षय करने वाला है (पिपिओ कम्मान तिविहि जोएन) त्रिविध योग मन, वचन, काय से उपयोग हटने और निज स्वभाव में डटने पर सारे कर्म क्षय हो जाते हैं (न्यान विन्यान सुभाव) भेदविज्ञान का स्वभाव (लघु गुरुवं च न्यान अन्मोयं) क्षणिक हो या स्थायी, छोटा हो या बड़ा हो वह सम्यक्ज्ञान का ही आश्रय है।
(न्यानं न्यान सहावं) जब ज्ञान, ज्ञान स्वभाव में रत होता है (न्यानं विन्यान कम्म संषिपन) इसी भेदविज्ञान रूप सम्यक्ज्ञान से कर्म क्षय होते हैं (ममल सहावं उत्तं) आत्मा को ममल स्वभाव अर्थात् सारे कर्म मलादि से रहित कहा गया है (न्यानेन न्यान ममल मिलियं च) ज्ञान के आश्रय से ही ममल स्वभाव रूप केवलज्ञान मिलता है।
विशेषार्थ - जब चिदानंद आत्मा का परिणाम अर्थात् उपयोग (दृष्टि) भेदविज्ञान की सहायता से निज स्वभाव रूप परिणमन करता है तब पर 2 पर्याय शरीरादि कर्म संयोग कुछ भी नहीं दिखता है, अपने चिदानंद स्वभाव का आलंबन और उस रूप परिणमन होने से कर्मों का क्षय होता है।
जब सम्यक्दृष्टि को चिदानंद स्वभाव की दृढ़ता हो जाती है तब चाहे भेदविज्ञान थोड़ा हो या बहुत हो वह चिदानंद स्वभाव में ही रमण करता है,
त्रिविध योग से कर्मों का क्षय हो जाता है।
भेदविज्ञान द्वारा सर्व परभावों से भिन्न होकर जब ज्ञानोपयोग शुद्धात्मा ममल स्वभाव में रत होता है तब सर्व कर्म क्षय हो जाते हैं तथा ममल स्वभाव रूप केवलज्ञान मिल जाता है, प्रगट हो जाता है । भेदविज्ञान से आत्मज्ञान होता है, आत्मज्ञान से कर्म क्षय होते हैं।
भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का श्रद्धान होने पर अपने को पर से भिन्न चिदानंद जाने तो स्वयं के आश्रय से संवर निर्जरा रूप दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उपाय करे और परद्रव्यों का अपने से भिन्न रूप श्रद्धान होने पर, पर के लक्ष्य से होने वाले पुण्य-पाप व आस्रव बंध को छोड़ने का श्रद्धान होता है। स्वयं को पर से भिन्न जानने पर निज हितार्थ प्रवर्तन करे तथा पर को अपने से भिन्न जानने पर उनके प्रति उदासीन हो, रागादि को छोड़ने का श्रद्धान हो इस प्रकार अपने ममल स्वभाव का आश्रय लेने पर भेदज्ञान से सम्यक्ज्ञान और सम्यज्ञान से केवलज्ञान होता है यही मोक्षमार्ग है।
शुद्ध स्वरूप ममल स्वभावी आत्मा में मानो विकार कर्मादि अंदर प्रविष्ट 3 हो गये हों ऐसा दिखाई देता है परंतु भेदज्ञान प्रगट होने पर वे ज्ञान रूपी
चैतन्य दर्पण में प्रतिबिम्ब रूप हैं। ज्ञान वैराग्य की अचिन्त्य शक्ति से पुरुषार्थ द्वारा द्रव्य दृष्टि से देखो चैतन्य द्रव्य ममल है, अनेक प्रकार के कर्म के उदय, सत्ता, अनुभाग तथा कर्म निमित्तक विकल्प आदि तुझसे भिन्न हैं, ऐसे ममल स्वभाव का आश्रय लेने पर सर्व कर्म क्षय हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
त्रिविध योग अर्थात् मन, वचन, काय से उपयोग हटने पर दृष्टि तो परमात्म तत्त्व पर ही होती है तथापि पंच परमेष्ठी, ध्याता, ध्यान, ध्येय इत्यादि संबंधी विकल्प भी होते हैं परंतु निर्विकल्प स्वानुभूति होने पर विकल्प जाल टूट जाता है, शुभाशुभ विकल्प नहीं रहते हैं, उग्र निर्विकल्प दशा में ही मुक्ति है।
प्रश्न-मुक्त होने का क्या उपाय है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - चिदानन्द सभावं, उवह परम जिनवरेंदेहि।
परम सहावं सुद्धं, चेयन आनन्द निव्वुए जंति ॥ ३०८॥ १८२
HI-E-HEERE
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