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****** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
अंतर दृष्टि में चिदानंद स्वभाव की अनंत महिमा भासित होकर उसका अनंत रस आना चाहिये, ऐसा करने से परिणाम स्वभाव में तन्मय होते हैं। गुण-गुणी के भेद का भी लक्ष्य छोड़कर एक रूप गुणी की दृष्टि कर इससे तुझे समता होगी, आनंद होगा, दुःख का नाश होगा। एक चैतन्य वस्तु ध्रुव है उसमें दृष्टि देने से मुक्ति मार्ग प्रगट होता है। इसी की विशेषता रूप गाथा आगे कहते हैं
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विपिओ संसार सुभावं चिपिओ नंत नंत कम्मानं । अन्मोयं न्यान सभाव, कम्मं विपिऊन तिविहि जोएन ।। ३०३ ।। चिदानन्द आनन्दं, न्यान सहावेन सभाव आनन्दं ।
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ज्यानेन ज्यानमालंय, अन्मोयं कम्म नंत संचिपनं ।। ३०४ ॥ अन्वयार्थ • (षिपिओ संसार सुभावं ) जब संसार स्वभाव रूप दर्शन मोह का क्षय हो जाता है (षिपिओ नंत नंत कम्मानं) अनंतानंत कर्मों का क्षय हो जाता है (अन्मोयं न्यान सभावं) ज्ञान स्वभाव का आलंबन होने पर (कम्मं षिपिऊन तिविहि जोएन ) त्रिविध योग मन, वचन, काय की एकाग्रता से समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं ।
(चिदानन्द आनन्दं) चिदानंद स्वभाव में आनंदित रहने से (न्यान सहावेन सभाव आनन्दं) अपने ज्ञान स्वभाव का स्वाभाविक सहज आनंद आता है (न्यानेन न्यानमालंव्यं) ज्ञान के आलंबन से ही केवलज्ञान प्रगट होता है (अन्मोयं कम्म नंत संषिपनं) केवलज्ञान स्वभाव के आश्रय से अनंत कर्म क्षय हो जाते हैं ।
विशेषार्थ जब संसार स्वभाव रूप दर्शन मोह का क्षय हो जाता है तब अनंतानंत कर्मों का क्षय हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व सहित ज्ञान स्वभाव का आलंबन होने से त्रिविध योग मन, वचन, काय की एकाग्रता रूप ध्यान साधना से समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं।
चिदानंद स्वभाव में आनंदित रहने से अपने ज्ञान स्वभाव का स्वाभाविक सहज आनंद आता है। ज्ञान के आलंबन से ही केवलज्ञान प्रगट होता है, केवलज्ञान स्वभाव के आश्रय से अनंत कर्म क्षय हो जाते हैं।
चार अनंतानुबंधी कषाय व तीन दर्शन मोहनीय के क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व होता है । क्षायिक सम्यक्त्वी निरंतर ज्ञान स्वभाव में रत रहता है।
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गाथा ३०३, ३०४*-*-*-*-*-*
तथा त्रिविध योग की साधना मन, वचन, काय से अपने उपयोग को हटाकर अपने ध्यान में लीन होने पर सारे कर्म क्षय हो जाते हैं, संसार परिभ्रमण छूट जाता है।
आत्मा का स्वभाव चिदानंदमयी है, ज्ञानानंद स्वभाव में रहने से केवलज्ञान प्रगट होता है। वीतराग भाव केवलज्ञान स्वभाव के आश्रय से कर्म क्षय हो जाते हैं।
आठ कर्म जो हैं, वह ज्ञान नहीं है क्योंकि कर्म अचेतन हैं। कर्म के लक्ष्य वाला ज्ञान होता है, वह भी ज्ञान नहीं है। कर्म का बंध, सत्ता, उदय, उदीरणा इत्यादि संबंधी जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान नहीं है। कर्म सम्बंधी ज्ञान होता है अपने में अपनी योग्यता से, कर्म तो उसमें निमित्त मात्र हैं लेकिन वह ज्ञान भी आत्मा का ज्ञान नहीं है ।
आत्मा, अबद्ध, अस्पृष्ट है, स्वरूप से आत्मा अकर्म अस्पर्श है। आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान से जानने का काम करे तब आस्रव का निरोध होता है। आत्मा ज्ञायक रूप है, उसको ज्ञान में लेकर जो अंतर में ध्यान करता है, उसके मन के विकल्प राग समाप्त हो जाते हैं। मन शांत हो जाता है, संसार शरीर से • उपयोग हट जाता है, तब अतीन्द्रिय आनंद के रस का स्वाद आता है। परिणाम अंतर्निमग्न होने पर अपने स्वज्ञेय में लीनता रूप शुद्धोपयोग से केवलज्ञान प्रगट होता है।
यहाँ आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा है। अज्ञानी जीव स्वज्ञेय को छोड़कर अनंत परज्ञेयों में ही अर्थात् आत्मा के अतीन्द्रिय ज्ञान को छोड़कर इन्द्रिय ज्ञान में ही लुब्ध हो रहे हैं। निज चैतन्य घन चिदानंद स्वरूप आत्मा का अनुभव नहीं है, ऐसे अज्ञानी परवस्तु में, परज्ञेयों में लुब्ध हैं उनकी दृष्टि और रुचि राग आदि पर है, वे इन्द्रिय ज्ञान के विषयों से और राग आदि से अनेकाकार हुए ज्ञान को ही स्वपने आस्वादते हैं, यही मिथ्यात्व है, जो संसार स्वभाव है।
निर्विकल्प समाधि ही निश्चय मोक्षमार्ग है, उससे उत्पन्न हुआ अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव ऐसा स्वसंवेदन ज्ञान वह ज्ञान है, इसी ज्ञान स्वभाव के आलंबन से केवलज्ञान प्रगट होता है, जिससे सारे कर्म और संसार परिभ्रमण क्षय हो जाता है।
प्रश्न
यह ज्ञान कैसे प्रगट होता है जिससे कर्म क्षय होते हैं ?
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