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KKAKK ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा- २९९-३०२***
* चिदानंद संदिई, दिट्ठी दिलेइ न्यान अन्मोयं ।
चिदानंद स्वभाव का आश्रय करने से ज्ञान स्वभावी आत्मा का निश्चय पज्जाव नहु पिच्छदि, दिड्डी आनंद कम्म संविपनं ॥ ३०१॥
होकर मोक्ष प्राप्ति का कारण भाव भेदविज्ञान रूपी अंकुर अर्थात् शुद्धोपयोग
प्रगट होता है। शुद्धोपयोग द्वारा जब आत्म स्वभाव में रमण होता है तब परम चिदानंद सुभावं, अन्मोयं देइ न्यान विन्यानं ।
सुख, परम आनंद की अनुभूति होती है इसी से सर्व कर्म क्षय होते हैं। पज्जाव नहु दिह, सुकिय सुभाव कम्म विपनं च ॥ ३०२॥
चिदानंद स्वभाव को देखने जानने, ज्ञान स्वभाव का आलंबन रखने से अन्वयार्थ- (चिदानंद संदिटुं) चिदानंद स्वभाव को सम्यक् प्रकार से
पर्याय कर्मादि दिखाई नहीं देते, जब आनंदमय दृष्टि होती है तब कर्मों का देखना (दंसन दंसेइ न्यान सहकार) सम्यकदर्शन सम्यज्ञान पूर्वक (चरनं
क्षय होता है । मैं आत्मा चिदानंदमय स्वभाव वाला हूँ, ऐसी भावना दुविहि संजोयं) दोनों प्रकार के सम्यक्चारित्र-सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण
करते-करते पर से भिन्न आत्मा की प्रतीति और ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति होती चारित्र की साधना सहित (न्यान सहावेन कम्म संषिपनं) ज्ञान स्वभाव में है। ज्ञानी जीव जब सर्व कर्म जनित पर्यायों से दृष्टि हटाकर अपने स्व स्वभाव रमण करने से कर्मों का क्षय होता है।
में ही तन्मय होता है, इसी से कर्मों का क्षय होता है। स्वभाव दृष्टि से कर्म क्षय (चिदानंद सहकारं) चिदानंद स्वभाव के सहकार से (न्यान विन्यान
होते हैं और पर्याय दृष्टि से कर्म बंध होता है। सहाव संजुत्तं) अपने ज्ञान-विज्ञान स्वभाव में लीन रहो (अंकुर न्यान सहावं)
प्रथम स्वरूप सन्मुख होकर निर्विकल्प अनुभूति होती है, आनंद का ज्ञान स्वभाव के अंकुर प्रगट होने से अर्थात् शुद्धोपयोग की प्रगटता से (नन्दं
वेदन होता है, तब ही यथार्थ सम्यक्दर्शन हुआ कहलाता है। ज्ञान स्वरूप आनन्द कम्म संषिपनं) परम सुख में आनंदित रहने से कर्मों का क्षय होता है।
आत्मा है ऐसे गुण-गुणी के भेद विकल्प रहित सम्यकज्ञान होता है। अनादि (चिदानंद संदिट्ठ) चिदानंद स्वभाव को देखने से (दिट्ठी दिद्वेइ न्यान
अनंत एकरूप चिदानंद चैतन्य मूर्ति भगवान आत्मा वह अंशी है और उसके अन्मोयं) दृष्टि के चिदानंद स्वभाव को देखने तथा ज्ञान का आश्रय होने से आश्रय से जो निर्मलता प्रगट होती वह अंश है यही सम्यक्चारित्र है। साधक (पज्जाव नहु पिच्छदि) पर्याय शरीरादि संयोग दिखाई नहीं देते अर्थात् पर्याय
जीव को अंशी का आश्रय होता है, अंश का नहीं। उसे अपने शुद्ध अखंड एक की तरफ दृष्टि नहीं जाती (दिट्ठी आनंद कम्म संषिपनं) आनंद स्वभाव की
परम पारिणामिक भाव स्वरूप निज चिदानंद स्वभाव का ही निरंतर अवलंबन दृष्टि होने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं।
वर्तता है, इसी के आधार से सर्व कर्म अपने आप क्षय होते हैं। (चिदानंद सुभावं) चिदानंद स्वभाव का (अन्मोयं देइ न्यान विन्यानं)
जैसे-सिद्ध भगवंत किसी के आलंबन बिना स्वयमेव पूर्ण अतीन्द्रिय आश्रय आलम्बन रखने से ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति होती है (पज्जावं नहु दिट्ठ)
ज्ञानानंद स्वरूप से परिणमन करने वाले दिव्य सामर्थ्यवंत देव हैं, तादृश सम्यक्दृष्टि ज्ञानी पर्याय को नहीं देखता है (सुकिय सुभाव कम्म विपनं च)
सभी आत्माओं का स्वभाव भी है। ऐसा निरालम्बी ज्ञान और सुख स्वभावरूप अपने आत्म स्वभाव पर दृष्टि रखता है इसी से कर्मों का क्षय होता है।
मैं हूँ, ऐसा लक्ष्य में लेने पर दृष्टि अतीन्द्रिय होकर पर्याय में ज्ञान और आनंद विशेषार्थ- सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों की
खिल जाता है, यही चिदानंद स्वभाव की अनुभूति है। इस तरह आनंद का एकता मोक्षमार्ग है और पूर्णता मोक्ष है। पर और पर्याय की दृष्टि से कर्मों का
अगाध सागर प्रतीति में, ज्ञान में और अनुभूति में आ जाता है। स्वयं का परम * आस्रव बंध होता है, स्वभाव रूप दृष्टि से कर्मों का संवर और निर्जरा होती है।
इष्ट ऐसा अतीन्द्रिय आनंद मुक्ति सुख प्राप्त होता है और अनिष्ट रूप पर्याय से * तत्वज्ञानी जीव "मैं चिदानंद स्वभाव हूँ" ऐसी भावना भाते-भाते ही
दृष्टि हट जाती है, सब कर्म संयोग विला जाते हैं। सम्यक दृष्टि ज्ञानी होता है, दोनों प्रकार के चारित्र-सम्यक्त्वाचरण और 8
अनादि अनंत ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप चिदानंद स्वभाव संयमाचरण चारित्र की साधना से जितनी-जितनी वीतरागता रूपज्ञान स्वभाव
है उसके स्व सन्मुख होकर आराधन करना, वही परमात्मा होने का सच्चा की प्रगटता होती है वैसे ही कर्म क्षय होते जाते हैं।
उपाय है। १८०
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