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HHHHHHH* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
गाथा- २९९,३००
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* ज्ञानानंद स्वभाव में रमण करने से कर्मों का क्षय होता है।
विशेषार्थ- आत्मा का असाधारण चिदानंद, चैतन्यमयी आनंद स्वभाव है। जो सिवाय आत्मा के और किसी पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल व आकाश द्रव्य में नहीं पाया जाता है। इस लक्षण से लक्ष्य रूप आत्मा का ज्ञान करके उसको परद्रव्य, परगुण, परपर्याय, कर्मोदय जन्य विभाव भावादि से भिन्न जानना चाहिये तथा इसी लक्षण चिदानन्द स्वभाव का ध्यान करना चाहिये। अपने ज्ञान स्वभाव को लखने पर कर्म दिखाई ही नहीं देते, आत्मानुभव में संवर पूर्वक कर्म निर्जरा होती है।
मैं चिदानंद स्वभाव हूँ ऐसी भावना बार-बार करने से मान्यता में से रागादि मल निकल जायेगा तथा आत्मा वीतराग विज्ञान रूप ममल स्वभाव ही झलकेगा।
ममल स्वभाव में कोई कर्मादि मल हैं ही नहीं, द्रव्य दृष्टि से देखने पर कोई कर्म मल दिखाई ही नहीं देते, एक समय की अशुद्ध पर्याय भी नहीं दिखेगी। इस तरह भावना करते-करते जब चिदानंद स्वभाव में तल्लीनता होती है तब सर्व पूर्वबद्ध कर्म क्षय हो जाते हैं।
चैतन्य लक्षण से ही आत्मानुभूति होती है क्योंकि अजीव द्रव्य वर्णादि सहित मूर्तिक भी है व वर्णादि रहित अमूर्तिक भी है इसलिये अमूर्तिकपने के लक्षण द्वारा देखने से जीवतत्व दिखाई नहीं दे सकता है। अमूर्तिकपना जीव में भी है और धर्म, अधर्म, आकाश, काल में भी है। रागादि मल किन्हीं जीवों में है, किन्हीं जीवों में नहीं है इसलिये जीवतत्त्व शुद्धात्म स्वरूप चैतन्य लक्षण ममल स्वभावी ही है।
आत्मा को चेतना गुणमय बतलाया है क्योंकि ज्ञान की पर्याय का अंश प्रगट है अत: चेतना लक्षणमय त्रिकाल है। आनंद का अंश तो जब स्वभाव का आश्रय हो तब प्रगट हो : परंतु चेतना की वर्तमान पर्याय तो अज्ञानी का
भी विकसित अंश है इसलिये यह कहा है कि भगवान आत्मा पूर्ण चैतन्य * लक्षणमय है, अंतर दृष्टि डालते ही चेतना स्वभाव अनंत अपरिमित ममल * स्वभाव अनुभव में आता है। ऐसे चैतन्य लक्षण चिदानंद ममल स्वभाव पर * दृष्टि डालने पर रागादि कर्ममलों से भिन्न दीख पड़ता है, इसी द्रव्य दृष्टि, * शुद्ध दृष्टि से पूर्वबद्ध कर्म निर्जरित क्षय हो जाते हैं।
ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर यह अनुभूति ***** * * ***
ही मैं हूँ ऐसा सम्यकज्ञान होता है। अतीन्द्रिय आनंद के वेदन में आनंद स्वरूप प्रभु पर से भिन्न, दया-दानादि के भाव, रागादि कर्म मलों से स्पष्ट भिन्न देखने में आता है। शास्त्र सुनकर अथवा धारणा से उसे भिन्न जाना है ऐसा नहीं क्योंकि यह तो राग मिश्रित जानना है परंतु रागादि कर्म मलों से भिन्न निर्मल भेदज्ञान के प्रकाश द्वारा आत्मा को चिदानंद चैतन्य ममल स्वभावी देखना वही भिन्न जानना कहलाता है।
भले ही जीव तथा रागादि कर्म भिन्न रहकर एक क्षेत्र में रहें तो भी दोनों कभी भी न तो एकरूप हुए और न ही हो सकते हैं अत: सावधान होकर रागादि कर्ममलों से भिन्न रूप चिदानंद स्वरूप का अनुभव कर, पुण्य-पाप के भाव दु:ख रूप हैं और मेरा स्वरूप आनंदमय है, ऐसे अभिप्राय पूर्वक रागादि कर्ममल, पुण्य-पाप के भावों से पीछे पलट, स्वरूप तो ममल चिदानंद स्वभावी है। जिसे ऐसा यथार्थ भेदज्ञान होता है उसे कर्मास्रव से निवृत्ति और संवरपूर्वक पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है। ___ जिसको द्रव्यदृष्टि यथार्थ प्रगट होती है, उसे दृष्टि के जोर से अकेला चिदानंद चैतन्य ही भासता है, शरीरादि कुछ भासता ही नहीं है। भेदज्ञान की परिणति ऐसी दृढ़ हो जाती है कि स्वप्न में भी आत्मा शरीर से भिन्न भासित होता है। दिन को जाग्रत दशा में तो शायक निराला रहता है परंतु रात को नींद में भी आत्मा निराला रहता है। आत्मा निराला तो है ही परंत प्रगट निराला हो जाता है।ज्ञान के अभ्यास से भेवज्ञान होता है व भेवज्ञान के अभ्यास से केवलज्ञान होता है।
हे भव्य ! स्थिर दृष्टि से तू अंतरंग में देख: तो सर्व परद्रव्य से मुक्त ऐसा तेरा स्वरूप परम प्रसिद्ध अनुभव में आयेगा।
प्रश्न -क्या ऐसे चिदानंद चैतन्य स्वभाव को देखने जानने से कर्मक्षय हो जायेंगे।
- इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - चिदानंद संदिटुं, दंसन दंसेइ न्यान सहकारं । चरनं दुविहि संजोयं, न्यान सहावेन कम्म संषिपनं ॥ २९९ ॥ चिदानंद सहकारं, न्यान विन्यान सहाव संजुत्तं । अंकुर न्यान सहावं, नन्दं आनन्द कम्म संविपनं ॥३०॥
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