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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
(न्यानानंदेन कम्म नहु पिच्छं) ज्ञानानंद में मगन रहने से कर्म दिखाई नहीं देते अर्थात् कर्मों का आस्रव बंध नहीं होता ।
(चिदानंद चेतनयं ) यह आत्मा चिदानंद चैतन्यमय है (षिपनिक रूवेन कम्म संषिपनं) जब आत्मा द्रव्य व भावरूप से क्षपणक होता है अर्थात् अपने स्वरूप में दृढ़ स्थित होता है तब कर्मों का क्षय होता है (कम्म सहाव न पिच्छं) कर्मों के स्वभाव, यह संसार और कर्म परंपरा को मत देखो ( चिदानंद नंद ससरूवं) अपने चिदानंद चैतन्य स्वरूप में लीन रहो, इसी में मगन रहो । विशेषार्थ अपना स्वभाव चिदानंदमयी है, अपने स्वसमय शुद्धात्मा में कर्मों का प्रवेश ही नहीं है, वहाँ संसार आदि कोई कर्म हैं ही नहीं, उस तरफ क्यों देखते हो ? अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रहो, इन कर्मों को मत देखो ।
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अपने चिदानंद चैतन्य स्वरूप में दृढ़ स्थित रहो, क्षायिक भाव में रहो तो यह सब कर्म क्षय हो जायेंगे, यह संसार और कर्म परंपरा, कर्मों के स्वभाव को देखने जानने की क्या जरूरत है ? इन्हें देखो ही मत, अपने चिदानंद मयी स्वस्वरूप में लीन रहो ।
जब आत्मा निश्चय सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र में ठहरता है, आप आपरूप एकाग्र होता है तब इसको स्व समय जानो और जब यह पुद्गल कर्म के उदय की अवस्था में ठहरता है तब इसको पर समय जानो ।
शुद्धोपयोग रूप वीतराग निर्विकल्प भाव जो अधिक काल तक ठहर सके वह क्षायिक स्वरूप होता है, इससे सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। मैं सुखी, मैं दुःखी इस भाव के अनुभव को कर्मफल चेतना कहते हैं। यह कर्मों की तरफ देखो ही मत, अपने चिदानंद चैतन्य स्व स्वरूप में आनंदित रहो तो यह संसार और कर्म परंपरा सब छूट जायेगी।
परम स्वभाव भाव शुद्ध ज्ञायक स्वरूप त्रिकाली सामान्य वस्तु स्वसमय की दृष्टि करने के लिये कहते हैं कि उसमें गुणभेद नहीं है और पर्याय भी नहीं है। भगवान आत्मा चिदानंद चैतन्य ज्योति ध्रुव स्वभाव है, यह तो ज्ञायक स्वभाव रूप से, परम पारिणामिक भावरूप से, स्वभाव भावरूप से ही त्रिकाली है। कर्मादि राग के साथ द्रव्य एक रूप नहीं हुआ है, यह संसार और कर्मादि संयोग जानने में आ रहा है, यह सर्वथा ही भिन्न है। यह मैं जाननहार हूँ, सो मैं ही हूँ, ज्ञेय वह मैं नहीं हूँ, ऐसा अपना अभेद स्वरूप अनुभव करो और
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गाथा २९७, २९८*******
स्वयं अपने ज्ञानानंद स्वभाव में रहो तो यह सब कर्म संयोग, संसार परंपरा अपने आप विला जायेगी, अपने स्वभाव में यह कुछ हैं ही नहीं ।
द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय और इन्द्रिय के विषय, इन सबका लक्ष्य छोड़कर अपने ज्ञान स्वभाव द्वारा पर से सर्वथा भिन्न ऐसा निज पूर्ण शुद्ध चिदानंद चैतन्य स्वरूप का अनुभव करने पर शरीर परिणाम को प्राप्त द्रव्येन्द्रिय, खंड-खंड ज्ञान रूप भावेन्द्रिय और इन्द्रिय के विषय भूत पदार्थ कुटुंब, परिवार, देव, गुरु, शास्त्र इत्यादि सब पर ज्ञेय हैं और ज्ञायक स्वयं भगवान आत्मा स्वज्ञेय है। विषयों की आसक्ति अज्ञान द्वारा संसार और कर्मोदय, इन दोनों का एक जैसा अनुभव होता था, निमित्त की रुचि से ज्ञेय ज्ञायक का एक जैसा अनुभव होता था लेकिन जब भेदज्ञान द्वारा भिन्नता का ज्ञान हुआ तब यह संसार और कर्मादि कुछ नहीं हैं, सब पर्यायी परिणमन भ्रम भ्रांति है। मैं तो एक अखंड शुद्ध बुद्ध चिदानंद चैतन्य भगवान आत्मा हूँ। ज्ञेय के साथ मेरा कोई संबंध नहीं है, ऐसा स्वसंवेदन ज्ञान होने पर सब कर्म संयोग क्षय हो जाते हैं, संसार विला जाता है।
इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैं
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चिदानंद लक्ष्यन थे, लच्यंतो न्यान ज्ञान विन्यानं । अलवं लवंतु रूवं लक्ष्यंतो कम्म नहु पिच्छं ।। २९७ ।। चिदानंद चिंतवनं चिन्तंतो न्यान ममल सभावं ।
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मलं सुभाव न दिई, चेयन आनन्द कम्म संषिपनं ।। २९८ ।। अन्वयार्थ ( चिदानंद लष्यन यं) आत्मा का लक्षण चिदानंद है (लष्यंतो न्यान झान विन्यानं) इस लक्षण की अनुभूति से ही आत्मा का ज्ञान होता है, आत्मा का ध्यान होता है तथा भेदविज्ञान होता है (अलषं लषंतु रूवं) ऐसा अलष स्वरूप जो मन वचन काय से परे अलख है, ऐसे अपने आत्म स्वरूप को लखो, अनुभव करो (लष्यंतो कम्म नहु पिच्छं) आत्मानुभव में अपने स्वरूप को लखने पर कर्म दिखाई ही नहीं देते।
( चिदानंद चिंतवनं ) चिदानंद स्वभाव का चिंतवन, अनुभव करने से, देखने से (चिन्तंतो न्यान ममल सभावं) ऐसी अनुभूति करने से ज्ञान ममल स्वभाव हो जाता है (मलं सुभाव न दिट्ठ) फिर यह रागादि रूप कर्मोदय, संसारी पर्याय, मल स्वभाव दिखाई नहीं देता (चेयन आनन्द कम्म संषिपनं)
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