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*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
कर्म वर्गणायें जब आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह रूप ठहरती हैं तब कर्मों की उत्पत्ति कही जाती है और जब वे प्रदेशों में से चली जाती हैं, बंध अवस्था छूट जाती है तब कर्मों का क्षय कहलाता है अथवा कर्मों का स्वभाव तो पैदा होने और क्षय होने का है। मोह, राग-द्वेष से कर्मों का बंध होता है। वीतराग विज्ञानमयी स्वभाव से कर्मों का क्षय होता है। ज्ञान चेतना के अनुभव से ज्ञान से ज्ञान शुद्ध होता है अर्थात् आत्मा पूर्ण मुक्त हो जाता है। ज्ञानानंद स्वभाव में रहने से ही कर्मों से मुक्ति होती है। रागी जीव कर्मों से बंधता है, वीतरागी जीव कर्मों से छूटता है।
आत्मा के जिन सम्यक्दर्शन आदि अथवा गुप्ति आदि गुणों के द्वारा कर्मों का आस्रव संवृत होता है, रुकता है उसे संवर कहते हैं अथवा कर्म योग्य पुद्गलों के कर्मरूप होने से रुकने को संवर कहते हैं। शुभ और अशुभ परिणामों को रोकना, दृष्टि का इनमें न जुड़ना भाव संवर है।
संवर और शुद्धोपयोग से युक्त जो जीव अनेक प्रकार के अंतरंग-बहिरंग तपों में संलग्न होता है वह नियम से बहुत कर्मों की निर्जरा करता है।
बंध के कारणों का अभाव होने से नवीन कर्मों का अभाव हो जाता है और निर्जरा के कारण मिलने पर संचित कर्म का अभाव हो जाता है, इस तरह समस्त कर्मों से छूट जाने को मोक्ष कहते हैं। आत्मा का जो परिणाम समस्त कर्मों के क्षय में हेतु है उसे भाव मोक्ष जानो और आत्मा से समस्त कर्मों का पृथक् हो जाना द्रव्य मोक्ष है ।
जिस योगी का चित्त ध्यान में उसी तरह विलीन हो जाता है, जैसे नमक पानी में लय हो जाता है, उसके अंतर में शुभ और अशुभ कर्मों को जला डालने वाली आत्म ज्ञान रूप अग्नि प्रगट होती है। जिसका पुण्य और पाप बिना फल दिये स्वयं झड़ जाता है वह योगी है, उसका निर्वाण होता है, वह पुन: आस्रव से युक्त नहीं होता।
मन, वचन, काय तथा कृत, कारित, अनुमोदना के भावों से अपनी दृष्टि हटा लेना, ज्ञान स्वभाव में समाधिस्थ रहना योग है। यह त्रियोग की साधना कर्म बंधन से छूटने का उपाय है।
१. राग-द्वेष और मोह के त्याग रूप अथवा आगम का विनय पूर्वक अभ्यास और धर्म तथा शुक्ल ध्यानरूप मनोगुप्ति होती है।
२. कठोर आदि वचनों का त्याग अथवा मौनरूप वचनगुप्ति होती है।
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गाथा २९५,२९६ *-*-*-*-*-* ३. शरीर के ममत्व का त्याग अथवा हिंसा, मैथुन और चोरी से निवृत्ति अथवा सर्वचेष्टाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है।
भेदज्ञान से जीव-अजीव को पृथक्-पृथक् निश्चय करके मन में उठने वाले राग-द्वेषमूलक सब विकल्पों को दूर करके निर्विकल्प मन के द्वारा स्वात्मा की उपलब्धि या अनुभूति होती है, इसी आत्मज्ञान से केवलज्ञान प्रगट होता है।
प्रश्न जब आत्मा सिद्ध के समान शुद्ध है फिर यह कर्मों का चक्कर कैसा है ?
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समाधान- मैं आत्मा सिद्ध के समान शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, ऐसे स्वयं के स्वरूप की विस्मृति रूप अज्ञान से, अनादि जीव और कर्मों के संबंध की परंपरा है। पूर्वबद्ध कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव राग-द्वेष रूप परिणमन स्वतः करता है और जीव के राग-द्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर कार्माण वर्गणायें स्वयं ज्ञानावरणादि रूप से परिणमन करती हैं, इससे छूटने का उपाय है कर्म जन्य रागादि भावों से आत्मा की भिन्नता को जानकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान और ज्ञान तथा रागादि रूप से परिणमन न करके राग और द्वेष की निवृत्ति रूप साम्यभाव को धारण करना। जब तक भेदज्ञान पूर्वक सम्यक्ज्ञान नहीं होता, तब तक यह संसार और कर्मों की परंपरा चलती रहती है। प्रश्न उपाय है ?
इस संसार और कर्मों की परंपरा से छूटने का क्या
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - चिदानंद ससहावं, कम्मं न पिच्छे नंद सहकारं ।
सुकिय सुभाव सुसमयं न्यानानंदेन कम्म नहु पिच्छं ।। २९५ ।। चिदानंद चेतनयं विपनिक रूवेन कम्म संषिपनं ।
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कम्म सहाव न पिच्छं, चिदानंद नंद सरूवं ।। २९६ ।।
अन्वयार्थ (चिदानंद ससहावं) आत्मा का अपना स्वभाव चैतन्यमय
तथा आनंदमय है (कम्मं न पिच्छेई नंद सहकारं) अपने सुख स्वभाव आत्मा में कर्मों का प्रवेश ही नहीं है अर्थात् आत्मा कर्मों को पहिचानता भी नहीं है (सुकिय सुभाव सुसमयं ) आत्मा का अपने स्वभावरूप रहना ही स्वसमय है।
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