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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी विकार से युक्त जीव भाव, बंध के अंतरंग कारण हैं।
यहाँ पुद्गलों के ग्रहण का कारण होने से बहिरंग कारण योग है और * विशिष्ट शक्ति की स्थिति में हेतु होने से जीवभाव ही अंतरंग कारण है।
प्रश्न-मिथ्यात्व अविरति आदि आसव के भी हेत? और बंध के भी, दोनों में क्या विशेषता है?
समाधान - पहले समय में कर्मों का आना आस्रव है, आगमन के अनंतर दूसरे आदि समय में कर्मों का जीव के प्रदेशों में स्थित होना बंध है तथा आस्रव में योग मुख्य है और बंध में कषाय आदि ।
बंध के चार भेद हैं - प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग।
१. प्रकृति बंध - कर्मों में ज्ञान को ढांकने आदि रूप स्वभाव के होने को प्रकृति बंध कहते हैं।
२. स्थिति बंध - उस स्वभाव से च्युत न होने को अथवा कर्मों के आत्मा के साथ रहने रूप समय की मर्यादा को स्थिति बंध कहते हैं।
३. अनुभाग बंध - कर्मों की सामर्थ्य विशेष को अनुभाग बंध कहते हैं।
४. प्रदेश बंध - कर्मरूप परिणत पुद्गल स्कंधों के परमाणुओं के द्वारा गणना को प्रदेश बंध कहते हैं।
अनुभाग बंध के भी चार भेद हैं -
१. घाति कर्मों के अनुभाग की उपमा - लता, दारु, हड्डी और पत्थर हैं।
२. अघाति में अशुभ कर्म-नीम, कांजीर, विष, हलाहल रूप होते हैं। ३. अघाति में शुभ कर्म - गुड,खांड, शकर, अमृत रूप होते हैं।
भावकर्म - मोह, राग-द्वेष आदि भावों को भावकर्म कहते हैं, जो संसार भ्रमण के मूल कारण हैं।
नोकर्म-शरीरादि नो कर्म है, जो बाह्य संयोग रूप माया जाल है तथा मुक्ति प्राप्ति में बाधक है।
इन शुभ-अशुभ रूप पुण्य-पाप कर्मों का जब तक संबंध है तब तक * संसार है । कर्मासव से घातिया-अघातिया दोनों प्रकार के कर्म का बंध होता * है। पुण्य कर्म में आनंद मानना ही घातिया कर्म से संयुक्त करता है। कर्म का
बंध दिखता नहीं है, कर्म का उदय दिखता है।
गाथा- २९३,२९४K ER साधक के बाधक कारण- १. पूर्व संस्कार, २. कर्म संयोग, ३. कषाय।
साधक को भयभीत भ्रमित करने वाले कारण - १. भाव कर्म, २. अशुद्ध पर्याय, ३. पापादि अशुभ कर्म ।
दृष्टि के सभाव पर ही कर्मों का आसव बंध होता है, ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है। कर्म, पुद्गल कार्माण वर्गणायें हैं। कर्म, कर्म से ही बंधता है, जीव अपने अज्ञान से फंसा है।
प्रश्न-इन कमाँ से छुटने का क्या उपाय है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंकम्म सहावं उत्तं, क्रित विरयं च कारितं विरयं । अनुमय विरयति सुखं, न्यान सहावेन कम्म विरयति ॥ २९३ ॥ उत्पति विपतिस कर्म, न्यान सहावेन विरय कम्मान। न्यानेन न्यान सुद्धं, चेयन आनन्द कम्म विरयंति॥२९४ ॥
अन्वयार्थ -(कम्म सहावं उत्तं) कर्म का स्वभाव कहा गया है (क्रित विरयं च कारितं विरयं) दृष्टि का ज्ञान पूर्वक मन वचन काय की क्रिया से विरक्त होना तथा क्रिया कराने के भाव से भी विरक्त रहना (अनुमय विरयति सुद्ध) किसी कार्य की अनुमोदना के भाव से भी विरक्त होना, मात्र शुद्ध भाव रखना चाहिये (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) इस प्रकार ज्ञान स्वभाव में ही रत होने से कर्मों की निर्जरा होती है।
(उत्पति षिपति स कम्म) कर्मों का स्वभाव पैदा होने और क्षय होने का है,मोह, राग-द्वेष से उनका बंध होता है और (न्यान सहावेन विरय कम्मानं) वीतराग विज्ञानमयी स्वभाव से कर्मों का क्षय होता है (न्यानेन न्यान सुद्धं) ज्ञान चेतना के अनुभव से ही या आत्मज्ञान में मग्न होने से ही ज्ञान शुद्ध होता है अर्थात् आत्मा पूर्ण शुद्ध मुक्त हो जाता है (चेयन आनन्द कम्म विरयंति) ज्ञानानंद स्वभाव में रहने से कर्मों से छुटकारा होता है।
विशेषार्थ- कर्मों से छूटने का एक मात्र उपाय दृष्टि का अपने ज्ञान* स्वभाव आत्मा में रत होना है । जब मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से नौ प्रकार सर्व प्रवृत्ति की ओर से दृष्टि हट जाये अर्थात् मन वचन काय की समस्त क्रिया से उपयोग हटकर अपने ज्ञान स्वभाव में डट जाये, इस प्रकार ज्ञान स्वभाव में रहने से कर्मों से मुक्ति होती है।
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