________________
गाथा-२९१,२९२
-------
-
H HHH-1-4 श्री उपदेश शुद्ध सार जी
नहीं कहलाता। अज्ञानी की तपश्चर्या को सच्ची तपश्चर्या मानना व वैसा ही प्ररूपित करना बड़ा पाप है। दृष्टि का पता ही नहीं हो, सत्य बात रुचिकर न हो व व्रत धारण करे तो क्या लाभ है?
ज्ञानी को परद्रव्य की क्रिया करने का विचार तो होता ही नहीं है बल्कि में उसे अपनी पर्याय में अशुभ भाव को शुभ करने का अभिप्राय भी नहीं रहता।
आत्मा ज्ञायक रूप से रहे एक यही अभिप्राय रहता है, इसी से पूर्व कर्म निर्जरित क्षय होते हैं, नवीन आस्रव बंध नहीं होता, ऐसे निर्णय बिना जो कोई भी अन्य साधन करे, उसमें मोक्ष साधन नहीं होता।
प्रश्न - यह कर्मों का आसव बंध कैसे होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - कम्म कम्म विषेसं, भाव कुभाव कम्म उपपत्ति। संसरइ कम्म विरयं, पुन्नं कम्मं च भाव सुह उत्तं ॥ २९१ ।। एकम्म कम्म जाने, जीव विरोह जीव पातं च । सरनस्य कम्म विरोह, नंदं कर्म च पाइसंजुतं ।। २९२ ॥
अन्वयार्थ - (कम्म कम्म विषेसं) कर्मों से ही कर्म की विशेषता होती है अर्थात् भावकर्म से द्रव्य कर्म बंधता है, द्रव्य कर्म के उदय से भावकर्म होता है (भाव कुभाव कम्म उपपत्ति) भाव कुभाव में जुड़ने से कर्मों की उत्पत्ति होती है अर्थात् दृष्टि के विभाव रूप परिणमन से कर्मों का आसव बंध होता है (संसरइ कम्म विरयं) जो सांसारिक पाप कर्मों से विरक्त होता है (पुन्नं कम्म च भाव सुह उत्तं) वह पुण्य कर्म और शुभ भाव कहा गया है।
(एकम्म कम्म जाने) इन पुण्य कर्मों, शुभ भावों से जो कर्म बंध होता है वह विशेष जानो (जीव विरोह जीव घातं च) यह जीव स्वभाव के विराधक हैं और जीव के घातक हैं (सरनस्य कम्म विरोह) यह विरोधी कर्म ही संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं (नंदं कम्मं च घाइ संजुत्तं) इन पुण्य कर्मों में आनंद मानना, इनसे घातिया कर्मों का बंध होता है।
विशेषार्थ- कर्म से ही कर्म का बंध होता है और कर्म में ही कर्म बंधता * है। भाव कर्म से द्रव्य कर्म बंधता है, द्रव्य कर्म के उदय से भाव कर्म होते
हैं। इसमें जीव की दृष्टि का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है अर्थात् दृष्टि के विभाव % रूप परिणमन से कर्मों का आस्रव बंध होता है। जब जीव की दृष्टि विभाव रूप * ** ****
अर्थात् पर पर्याय की तरफ होती है तब कर्मासव होता है और जब भाव कुभाव में जुड़ जाती है तब कर्मों का बंध होता है। सांसारिक प्रपंच हिंसादि पापकर्मों से जुड़ने पर अशुभ कर्म पापबंध होता है और इनसे हटकर शुभ कर्मों में जुड़ने से शुभ कर्म पुण्य बंध होता है । यह पुण्य कर्म शुभ भाव रूप कहलाता है परंतु यह दोनों ही कर्म, कर्म जानो क्योंकि यह जीव स्वभाव के विराधक और जीव के घातक हैं। यह दोनों कर्म ही संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं। इन कर्मों में आनंद मानना ही घातक है क्योंकि यह घातिया कर्मों का बंध कराते हैं।
द्रव्य कर्म के आठ भेद हैं - चार घातिया, चार अघातिया। चार घातिया कर्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय यह जीव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा वीर्य स्वभाव के घातक हैं।
चार अघातिया कर्म-नाम, आयु, गोत्र, वेदनीय । यह शरीरादि संयोगों का शुभ-अशुभ संयोग कराते हैं। आत्मा के जिस परिणाम से कर्म आते हैं उसे भावासव जानो और कर्मों का आना द्रव्यासव है।
पुण्यासव-जिसका राग प्रशस्त है अर्थात् जो पंच परमेष्ठी के गुणों में, उत्तम धर्म में अनुराग करता है, जिसके परिणाम दया युक्त हैं और मन में क्रोध आदि रूप कलुषता नहीं है उस जीव के पुण्य कर्म का आस्रव होता है।
पापासव- तीव्र मोह के उदय से होने वाली आहार, भय, मैथुन और परिग्रह संज्ञा, तीव्र कषाय के उदय से रंगी हुई मन वचन काय की प्रवृत्ति रूप कृष्ण, नील, कापोत यह तीन लेश्यायें, राग-द्वेष के उदय के प्रकर्ष से तथा इन्द्रियों की आधीनता रूप राग-द्वेष के उद्रेक से, प्रिय का वियोग, अप्रिय का संयोग,कष्ट से मक्ति और आगामी भोगों की इच्छा रूप आर्तध्यान, कषाय से चित्त के क्रूर होने से हिंसा, झूठ, चोरी, और विषय संरक्षण में आनंद मानने रूप रौद्र ध्यान, शुभकर्म को छोड़कर दुष्कर्मों में लगा हुआ ज्ञान और दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय के उदय से होने वाला अविवेक रूप मोह यह सब पापासव के कारण हैं।
बंध का स्वरूप-पूर्वबद्ध कर्मों के फल को भोगते हए जीव की जिस परिणति विशेष (दृष्टि) के द्वारा कर्म बंधते हैं अथवा जो कर्म जीव को अपने आधीन कर लेता है उसे बंध कहते हैं अथवा जीव और कर्म के प्रदेशों का जो परस्पर में मेल होता है उसे बंध कहते हैं। मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले
关多层多层司朵》卷卷
१७५