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________________ ** -E-5-18-5-16 E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी क्रिया को त्यागकर उससे दृष्टि हटाकर ज्ञान स्वभाव में लय होते हैं वे कर्मों से * छूटते हैं। (विषय सहाव स उत्तं) पांचों इन्द्रियों के विषयों की वांछा करके उनकी * पूर्ति के लिये (व्रत तप किरियं च कस्ट अनेयं) व्रत करता है, तप साधना करता है, क्रियाकांड करता है तथा बहुत कष्ट उठाता है (अन्यानं पिच्छंतो) इन क्रियाओं को करते हुए अज्ञान रूप दृष्टि से अशुभ कर्मों का ही बंध होता है (न्यान बलेन कम्म विरयंति) ज्ञानबल से अर्थात् स्वभाव दृष्टि होने से कों से छुटकारा होता है। (पुग्गल सहाव उत्तं) पुद्गल का स्वभाव तो गलन-पूरण परिवर्तनशील नाशवान है (पज्जय अनिस्ट इस्ट सभावं) पर्याय को इष्ट-अनिष्ट मानना (अन्यानं कम्म परं) यही अज्ञान विशेष कर्म का बंध करता है (न्यान बलेन कम्म विरयंति) आत्मज्ञान के बल से कर्मों की निर्जरा होती है। विशेषार्थ - शरीर की क्रिया यदि मंद कषाय से शुभ भावना युक्त होती है तो साता वेदनीय आदि पुण्यकर्म का बंध होता है, यदि तीव्र कषाय से अशुभ भावना युक्त होती है तो असाता वेदनीय आदि पापकर्म का बंध होता है। अज्ञान मिथ्यात्व सहित मिथ्यादृष्टि जीव महान हिंसानंदी भाव से बहुत पापकर्मों का बंध करता है, विशेष दोषों से संयुक्त होता है । आत्म ज्ञान से ही कर्मों से छूटना होता है। पुद्गल पर्याय पर दृष्टि होने से अज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव शरीर का मोही झूठ बोलने में आनंद मानता है, चोरी करने में, कुशील का सेवन करने में आनंद मानता है और इस रौद्र ध्यान से अनंत कर्मों का बंधकर नरक जाता है। ज्ञान स्वभाव की साधना से ही कर्मों से मुक्ति होती है। इन्द्रिय विषय सुख की भावना से जो व्रत करता है, तप साधना करता है, अनेक क्रिया कर्म करके कष्ट उठाता है और चाहता है कि इससे मुझे देवगति मिलेगी, वहाँ सुख भोगूंगा वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि, इन व्रतादि क्रियाओं * द्वारा भी अनेक कर्मों का बंध करता है, ज्ञान बल से ही कर्मों से छुटकारा होता है। पुद्गल का स्वभाव गलन पूरण परिवर्तनशील नाशवान है। पुद्गल परमाणुओं का स्कंध रूप यह शरीर है जो धूल का ढेर मिट्टी है, जिसमें मांस हड्डी मल मूत्र भरा है, इसकी पर्याय को जो इष्ट-अनिष्ट मानता है, शरीर को गाथा- २८७-२९०*** * * देखकर आकर्षित होता है, अच्छा-बुरा मानता है वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि इस सब नोकर्म की रचना से कर्मों का ही बंध करता है। कर्मों से छूटने के लिये तो सर्व काय की क्रिया को छोड़कर स्वयं आत्मस्थ होना होगा, तब ही कर्मों की निर्जरा होगी। मोक्षमार्ग के विरुद्ध महान कठिन तपादि कर्म करके कोई अपने को कष्ट देवे तो देता रहे अथवा अहिंसादि पांच महाव्रत व अनशनादि बारह प्रकार तप के भार को ढोकर चिरकाल तक कष्ट उठावे तो उठावे परंतु जिसकी दृष्टि शरीरादि पर है वह मुक्ति नहीं पा सकता, मोक्ष तो साक्षात् एक निराकुल अविनाशी स्वानुभव गम्य ज्ञानमय एकपद है, जो आत्मज्ञान गुण के बिना कोई किसी भी तरह प्राप्त नहीं कर सकता। एक होय त्रिकाल मां, परमारथनो पंथ । सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । निश्चय नय तो ज्ञान का एक अंश है वह तो पर्याय है, उस पर्याय के आश्रय से कोई मुक्ति नहीं होती परंतु निश्चय नय तथा उसका विषयभूत जो त्रिकाल अभेद स्वभाव है, उस अभेद स्वभाव के अनुभव में नय व नय के विषय का भेद नहीं रहता अत: अभेद अपेक्षा से कहा गया है कि निश्चय नयाश्रित मुनिवरो, प्राप्ति करें निर्वाण की। नैतिकवान कुल, धन संपन्नता, निरोगी शरीर तथा दीर्घ आयु आदि RA यह सभी पाकर भी अंतर में उत्तम सरल स्वभाव को पाना दुर्लभ है। परिणाम में तीव्र वक्रता हो, महा संक्लिष्ट परिणाम हो, क्रोध, मान, माया, लोभ की तीव्रता हो, हिंसानंदी रौद्र ध्यान हो, विषय-कषाय का लंपटी हो तथा सरल व मंद कषाय रूप परिणाम न हो, उसे तो धर्म पाने योग्य पात्रता ही नहीं है, वह तो अनंत कर्मों का बंध कर के नरक निगोद आदि गतियों में जाता है। पर जीव को न मारना कोई अहिंसा नहीं है, किसी भी जीव को मारने काया बचाने का विकल्प ही न उठना वह अहिंसा है। ज्ञान स्वभाव में रमणता ही अहिंसा है। शरीर के पुष्ट अथवा निर्बल होने पर मैं पष्ट या निर्बल होता है. इस प्रकार शरीर की पर्याय को जो इष्ट-अनिष्ट मानता है वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है। विपरीत मान्यता में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य व परिग्रह यह पांचों ही पाप समाहित हैं। जिसको अंतर्दृष्टि व ज्ञान नहीं है, उसका तो उपचार से भी बाह्य तप १७४
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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