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________________ MBE 示出示,帝示 AH श्री उपदेश शुद्ध सार जी ज्ञान स्वभाव में रमण करने से कर्मों की निर्जरा होती है, कर्म बंधन छूटते हैं। (क्रितस्य असुद्धं कम्म) क्रिया से शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का * बंध होता है (गृह बालेन ग्रही कर्मक्रितं च) शारीरिक क्रिया कामभाव के द्वारा स्त्री-पुत्र परिवार घर गृहस्थी का फैलाव फैलता है, जिससे गृहस्थ कार्य करना पड़ते हैं (अबंभ भाव अभावं) अब्रह्म, कामभाव का अभाव होने पर (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव में रहने से कर्मों से छुटकारा होता है। (नो कम्मं उववन्नं) यह शरीर नोकर्म से पैदा होता है (भाव कम्मं च सयल असहावं) इसके निमित्त से भावकर्म और सारा विभाव परिणमन होता है (कम्म कम्म कलंक) इन भावकर्मों से द्रव्य कर्म रूपी कलंक पैदा होता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से ही कर्मों का क्षय होता है। विशेषार्थ - शरीर में रागी मनुष्य शारीरिक क्रिया द्वारा अनंत कर्मों का बंध करता है, जैसे-कर्मों को क्षय करने के लिये मन के संकल्प-विकल्प व वचनों से दृष्टि हटाने की जरूरत है, वैसे ही काय की क्रियाओं से भी दृष्टि हटाने की जरूरत है। पुद्गल शरीर के निमित्त से अनेक प्रकार की क्रियायें होती हैं, जहाँ तक करने रूप क्रिया का सम्बंध है वहाँ तक कर्म का बंध है। जब काय रूप क्रिया से दृष्टि हटाकर अपने ज्ञान स्वभाव में रहा जाता है तब ही कर्मों का क्षय होता है। शारीरिक क्रिया से शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का बंध होता है। घर गृहस्थी का फैलाव कामभाव से होता है और इस कामना वासना की पूर्ति के लिये स्त्री-पुत्र, परिवार का सम्बंध होता है। गृहस्थ दशा में द्रव्य कमाना, पानी भरना, आटा पीसना, उखली में कूटना, झाडू लगाना और रोटी बनाना इन छह कर्मों से हिंसादि पाप कर्म का बंध होता है। दया, दान परोपकार करने से पुण्य का बंध होता है। जब काम भाव का अभाव होवे, कोई कामना वासना विषयाशक्ति न रहे, तब ज्ञान स्वभाव की साधना से कर्मों का क्षय * होता है। यह कामभाव दोषों की खान है, गुणों का नाश करने वाला है, पाप का बंधु है,बड़ी-बड़ी आपत्तियों को लाने वाला है। पिशाच के समान इस कामभाव से सर्व जगत पीड़ित है तथा जगत के प्राणी इसी के आधीन होकर निरंतर * ** *** गाथा-२८७-२९० ----------- संसार सागर में भ्रमते रहते हैं। इस कामभाव को वैराग्य भावना से जीतकर धीर वीर साधु जन मुक्ति को पाते हैं। यह शरीर नोकर्म से उत्पन्न नाशवान है, इसका पालन पोषण करने, पांचों इन्द्रियों की इच्छा पूर्ति के लिये नाना प्रकार मोह राग-द्वेष भाव होते हैं, उन भावों के अनुसार नाना प्रकार हिंसा आदि आरंभ क्रियायें करना पड़ती हैं जिससे कर्मों का बंध होता है। तत्त्वज्ञानी इस काय की क्रियाओं से दृष्टि हटाकर आत्म स्वभाव में लीन होकर रत्नत्रय की एकता से कर्मों से छुटकारा पाते हैं। शरीर के सम्बंध से और क्या होता है ? यह आगे गाथा में कहते हैं - पुन्य पाउ उववन्न, हिंसानंदी च दोस संजुतं । अनित असत्य सहियं, न्यान सहावेन कम्म विरयंति ॥ २८७ ॥ अत्रित नन्द आनन्द, स्तेय अबंध नन्द सहकार। पुग्गल पज्जाव दिई, न्यान सहावेन कम्म विरयति ॥ २८८॥ विषय सहावस उत्तं, व्रत तप किरियं च कस्ट अनेयं । अन्यानं पिच्छंतो, न्यान बलेन कम्म विरयंति ॥ २८९॥ पुग्गल सहाव उत्तं, पज्जय अनिस्ट इस्ट सभावं । अन्यानं कम्म परं, न्यान बलेन कम्म विरयंति ॥ २९०॥ अन्वयार्थ - (पुन्य पाउ उववन्न) इस शरीर की क्रिया से अभिप्राय के अनुसार पुण्य तथा पाप का बंध होता है (हिंसानंदी च दोस संजुत्तं) यदि हिंसा में आनंद मानते हुए बस स्थावर का घात किया जाता है (अनित असत्य सहियं) साथ में मिथ्यात्व भाव व अज्ञान भाव सहित शारीरिक क्रिया में जुड़ता है तो विशेष पापकर्म का बंध होता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) जब पुण्य-पाप रूप सर्व काय क्रिया का त्याग होता है और ज्ञान स्वभाव में लीनता होती है तब ही कर्मों की निर्जरा होती है। (अनित नन्द आनन्द) झूठ बोलने के आनंद में मगन होकर (स्तेय अबंभ नन्द सहकार) या चोरी करने व कुशील सेवन के आनंद में भरकर (पुग्गल पज्जाव दि8) शरीर की पुद्गल पर्याय को देखना, इस ओर की दृष्टि से पापकर्म का बंध होता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) जो सर्व काय की HAKHAkk १७३
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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