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गाथा-२८४-२८६-H-----
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सने से
- श्री उपदेश शुद्ध सार जी सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव से ही कर्मों का क्षय होता है।
(वयनं सहाव उत्तं) वचनों का स्वभाव कहने, बोलने का है (नंत विषेसेन पज्जाव संजुत्तं) जितना भी वचन व्यवहार है वह सब पर्याय से ही संयुक्त * करता है अर्थात् वचन द्वारा जीव-पुद्गल की पर्याय अपेक्षा ही जानकारी
होती है (वयनं विरयंति सुद्ध) जो सर्व वचनों से विरक्त होकर छूटकर शुद्धभाव में जमते हैं वे (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से कर्मों से छूटते हैं।
विशेषार्थ- अज्ञान दशा में अज्ञानी तत्त्वचर्चा करने से व जिनवाणी के पढने सुनने से उदास होकर संसार संबंधी निन्दा प्रशंसा की व विषयों के सेवन की वृथा बकवाद किया करता है । चार विकथाओं में मग्न रहता है, दूसरों की बुराई और अपनी प्रशंसा करता है, इस तरह अज्ञान से बहुत कर्मों का बंध होता है। जब आत्मज्ञान होता है तब ही कर्म क्षय होते हैं।
पौद्गलिक परिणमन सारा गलन-पूरण स्वभाव है अर्थात् सब क्षणभंगुर नाशवान है और पर्याय एक समय की है, इनकी चर्चा करने से, नाना प्रकार की विशेषता बताने से इनमें उपयोग लगा रहता है जिससे अनंतानंत कर्म पैदा होते हैं। शरीर सम्बंधी वचन विलास, राग-द्वेष, मोह उत्पादक होने से पाप कर्म का बंध कराने वाला है तथा आत्मा सम्बंधी व तत्त्व सम्बंधी वचन प्रयोग किया जावे तो उससे भी पुण्य कर्म का बंध होता है क्योंकि यह सब पर्याय की चर्चा होती है और पर्याय पर दृष्टि होना ही कर्म बंध का कारण है। जो स्वभाव वचनातीत, अनुभूति का विषय है, जो इन वचन व्यवहार से छूटकर अपने शुद्ध स्वभाव में जमते हैं, ज्ञान पूर्वक स्वभाव साधना करते हैं वही इन कर्म बंधनों से छूटकर मुक्त होते हैं।
अज्ञानी निरंतर कमाँ से बंधता है क्योंकि वह हर क्रिया, कर्म, भाव, पर्याय का कर्ता है।शानी,शायक, अबंध अकर्ता है। होना है वह होता है। क्रिया, भाव और पर्याय से वह भिन्न स्वतंत्र है।
भावों में और क्रिया में, यह क्या हो रहा है ? ऐसा होना था, ऐसा न हो * जाये, यह शल्य विकल्प अज्ञानी जीव को होते हैं और उनमें यह अच्छा है, * यह बुरा है, यह हितकारी है यह अहितकारी है, यह शुभ-अशुभ, पाप-पुण्य * है ऐसा भेद विकल्प चलता है यही तद्प कर्मबंध का कारण है।
ज्ञेय का विचार करना ही विकल्प है, कुछ समय चलने पर उनमें लिप्तता HHHHHHH*
हो जाती है, मोह राग-द्वेष होने लगता है । चर्चाओं का तथा अपने दुष्ट संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो, यही तत्त्व का सार है।
ज्ञानी जानता है कि शरीर भिन्न है, कर्म भिन्न है। उसका उदय उसकी अवस्था है, मेरा स्वरूप उससे सर्वथा भिन्न है । उदय काल में, संयोग-वियोग में, हर्ष-विषाद के कारण आते हैं परंतु वे मुझसे भिन्न हैं, मेरी सत्ता से भिन्न हैं, मेरे गुणों से भिन्न हैं, मेरी पर्याय से भिन्न हैं। ऐसे ज्ञान स्वभाव के आलंबन से ही कर्म क्षय होते हैं।
जो भव्य प्राणी अनेकांत स्वरूप जिनवाणी के अभ्यास से उत्पन्न सम्यज्ञान द्वारा तथा निश्चल आत्म संयम के द्वारा निज शुद्धात्मा में उपयोग स्थिर करके बार-बार शुद्धात्मा की भावना करता है वही कर्म बंधन से छूटकर परमात्म पद पाता है।
मनुष्य जब तक इस मृतक तुल्य देह में आसक्त रहता है, तब तक वह अत्यंत अपवित्र रहता है और जन्म-मरण तथा व्याधियों का आश्रय बना रहकर उसको दूसरों से अत्यंत क्लेश भोगना पड़ता है; किंतु जब वह अपने कल्याण स्वरूप अचल और शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तो उन समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाता है।
प्रश्न - शारीरिक क्रिया से क्या होता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं? क्रितस्य कम्म उववन्न, क्रितस्य पुग्गल सहाव अनेयं । क्रितस्य बन्ध सम्बंध, न्यान सहावेन कम्म विरयति ॥ २८४ ॥ क्रितस्य असुद्धं कम्म, गृह बालेन ग्रही कर्मक्रितं च। अबंभ भाव अभावं, न्यान सहावेन कम्म विरयति ॥ २८५॥ नो कम्म उववन्न, भाव कम्मं च सयल असहावं। कम्मं कम्म कलंक, न्यान सहावेन कम्म विरयंति॥२८६॥
अन्वयार्थ-(क्रितस्य कम्म उववन्न) काय द्वारा क्रिया करने से कर्मों का बंध होता है (क्रितस्य पुग्गल सहाव अनेयं) शरीर पुद्गल के निमित्त से अनेक प्रकार की क्रियायें होती हैं (क्रितस्य बन्ध सम्बंध) जहाँ तक करने रूप क्रिया का सम्बंध है वहाँ तक कर्म का बंध है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति)
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