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-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
कारण है।
प्रश्न- जैसा अभी तक सुना समझा है, जैसा जानते हैं वैसा ही बोलते हैं, इसमें क्या दोष है ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - वयनं असुद्ध वयनं, असुद्ध आलाप कम्म बंधानं ।
जनरंजन स सहावं, न्यान सहावेन कम्म विरति ।। २७९ ।। वयनं असुद्ध वचनं, पज्जावं रंजेड़ वयन सहकारं ।
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जन रंजन मूड सहावं, न्यान सहावेन वयन तिक्तंति ।। २८० ॥ अन्वयार्थ ( वयनं असुद्ध वयनं) वचनों को लेकर अज्ञानी प्राणी बहुत अशुद्ध व असत्य वचन बोलता है (असुद्ध आलाप कम्म बंधानं ) शास्त्र विरुद्ध असत्य वचन कहने से कर्मों का बंध होता है (जनरंजन स सहावं ) नाना प्रकार वचनों के विलास से जगत के प्राणियों को रंजायमान करने का स्वभाव पड़ जाता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) जो वचनों की प्रवृत्ति को रोककर अपने ज्ञान स्वभाव में लय होते हैं उन्हीं के कर्मों की निर्जरा होती है।
( वयनं असुद्ध वयनं) बोलने में अशुद्ध बोलना अर्थात् संसारी बातें करना (पज्जावं रंजेइ वयन सहकारं) ऐसे वचनों के सहकार से पर्याय में रंजायमानपना होता है (जन रंजन मूढ सहावं) लोगों को रंजायमान करना, प्रभावित व प्रसन्न रखना यह मूढ़ अज्ञानी जन का स्वभाव है (न्यान सहावेन वयन तिक्तंति) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से वचनों की प्रवृत्ति स्वयं छूट जाती है।
विशेषार्थ कर्मों को क्षय करने के लिये मन वचन काय की क्रिया से दृष्टि हटाने की जरूरत है। वचनों की असत्य व निरर्थक प्रवृत्ति से बहुत कर्म का बंध होता है, बहुत से प्राणी शास्त्र विरुद्ध वचन कहते हैं, बहुत से स्वार्थ साधक असत्य वचन कहते हैं। बहुत से व्यर्थ चर्चायें करके हास्य कौतूहल सहित लोगों को खुश करते हैं, इत्यादि वचन व्यवहार से कर्म का बंध होता है। आत्मा में लीन होने के लिये इस वचन की प्रवृत्ति को रोकना होगा, तब ही कर्मों का क्षय होगा ।
शरीर में रागी मानव अपने वचनों से अपनी प्रशंसा व अपने सुख भोग
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गाथा २७९-२८३ *******
का वर्णन किया करते हैं, विषयों की कथायें करते हैं। चार आदमियों में बैठकर लोगों के मन को रंजायमान करना अज्ञानी जीवों का स्वभाव पड़ जाता है। इस प्रकार वचनों की वृथा प्रवृत्ति से अज्ञानी कर्म बांधते हैं। आत्मा के अनुभव में तब ही लीन हुआ जायेगा जब वचनों का व्यवहार बंद होगा अथवा आत्मा में लीन होने से स्वयं वचन व्यवहार नहीं रहता है।
मर्म को छेदने वाला, मन में शल्य उपजाने वाला, चित्त में आकुलता पैदा करने वाला, विरोध उपजाने वाला तथा हिंसाकारी निर्दय वचन नहीं बोलना चाहिये । राग के सद्भाव में ही वचन प्रवृत्ति होती है, जो कर्म बंध का कारण है। ज्ञान पूर्वक वीतरागता में ही वचन प्रवृत्ति नहीं होती, यही मुक्ति का मार्ग है।
प्रश्न- अज्ञान दशा में क्या होता है ?
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इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अन्यान सुभाव सुभाव, आलापं देह कम्म उववन्नं । अन्यानं सहकार, न्यान सहावेन कम्म विरयति ।। २८१ ।। वयनं कम्म उवयन्नं नंस विषेसेन नंसताइ । गलियति पूरति उत्तं, न्यान सहावेन कम्म विरयंति ॥ २८२ ॥ वचनं सहाव उतं नंत विषेसेन पञ्जाव संजु
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वयनं विरति सुद्धं, न्यान सहावेन कम्म विरवंति ।। २८३ ।।
अन्वयार्थ - ( अन्यान सुभाव सुभावं ) अज्ञान दशा में जीव का स्वभाव अज्ञानमय होता है (आलापं देइ कम्म उववन्नं) नाना प्रकार चर्चा बकवाद क्रिया कर्म किया करता है, जिससे कर्म पैदा होते हैं अर्थात् कर्मों का आस्रव बंध होता है (अन्यानं सहकारं) हमेशा अज्ञान का सहकार करता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से कर्मों की निर्जरा होती है।
( वयनं कम्म उववन्नं) वचन वर्गणा से कर्म पैदा होते हैं (नंत विषेसेन नंतनंताइ) इस शरीर संबंधी अज्ञानमय अनेक प्रकार के वचनों को कहने से अनंतानंत कर्मों का बंध होता है (गलियति पूरति उत्तं) पौद्गलिक परिणमन सारा गलन पूरण स्वभाव कहा गया है, इसकी चर्चा करना ही अज्ञान है (न्यान
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