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________________ -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी होता है उसी के कर्मों की निर्जरा होती है। विशेषार्थ दृष्टि का विषय सूक्ष्म है, दृष्टि का पर पर्याय की तरफ लक्ष्य होना ही विभाव परिणति कर्मास्रव है। पांचों इन्द्रियों के विषयों में रत रहना, मन से जुड़े रहना ही कर्म बंधन और अनंत संसार परिभ्रमण का कारण है । अपने ममल स्वभाव शुद्धात्म तत्त्व की दृष्टि ही कर्मबंधन से छुड़ाने वाली है। - जिव्हा इन्द्रिय, खट्टे-मीठे, चरपरे, तीखे, कषायले आदि स्वाद की लोलुपी रहती है। दूध, घी, तेल, दही, मीठा, लवण इन छह रसों से बने हुए अनेक प्रकार के व्यंजनों को चखना चाहती है। जितने जितने इस जिव्हा को इच्छानुकूल रसीले भोज्य पदार्थ मिलते जाते हैं, उतनी उतनी इसकी स्वाद की तृष्णा, रस लोलुपता बढ़ती जाती है। इस रसना इन्द्रिय की लोलुपता को जो जीतकर आत्म रस का रसिक हो आत्मा में रत होता है, उसी के कर्मों की निर्जरा होती है । रसना इन्द्रिय से बोलना और खाना यह दो काम होते हैं और इन दोनों से ही कर्मों का बंध होता है, जब तक बोलने और खाने का रागभाव रहेगा, तब तक कर्म बंध होता रहेगा। इन कर्म बंधनों से छूटने का उपाय अपने ज्ञान स्वभाव में आत्मस्थ रहना है। खट्टा मीठा इत्यादि भेदपने जो रस ज्ञान में आते हैं, वह ज्ञान नहीं है और उस रस का जो ज्ञान होता है वह भी जड़ है। भगवान आत्मा चैतन्य ज्योति स्वरूप प्रभु है । उसका ज्ञान होता है वही ज्ञान है, स्वसंवेदन ज्ञान ही ज्ञान है वही सम्यक्ज्ञान है और उसी को मोक्षमार्ग माना गया है। दुनियां की बातों का जिसको रस है, उसको यह बात बैठनी कठिन लगती है और जिसको इस बात का रस लग जाता है उसको अन्य में रस नहीं लगता है, ऐसे ही जिसको इन्द्रिय ज्ञान का रस चढ़ा है उसको अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट नहीं होता है । प्रश्न- शरीर के साथ पांच इन्द्रियाँ और मन है इसे क्या करें ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - सरीर सुभाव उववन्नं, अबंभ भावेन कम्म बन्धानं । दोसं अनन्त दिई, अहिंदी सहाव कम्म विरयंति ।। २७७ ।। १७० गाथा २७७, २७८ -*-*-* एवं अनेय भावं, मन पज्जाव कम्म बंधानं । मन विलयं न्यान सहाय, अप्प सहावेन कम्म विरयति ॥ २७८ ॥ अन्वयार्थ - ( सरीर सुभाव उववन्नं) शरीर स्वभाव जब पैदा होता है अर्थात् जब शरीरादि मन की तरफ दृष्टि जाती है (अबंभ भावेन कम्म बन्धानं ) तब अब्रह्म भाव के होने से कर्मों का बंध होता है (दोसं अनन्त दिट्टं ) इससे अनंत दोष दिखते हैं (अतिंदी सहाव कम्म विरयंति) अतीन्द्रिय स्वभाव आत्मा की ओर दृष्टि होने से कर्म क्षय हो जाते हैं। (एयं अनेय भावं) ऊपर कथित अनेक भाव होते हैं (मन पज्जाव कम्म बंधानं) मन और पर्याय की तरफ दृष्टि होने से कर्मों का बंध होता है (मन विलयं न्यान सहावं) ज्ञान स्वभाव से ही मन विलाता है, अज्ञान में मन दिखाई देता है (अप्प सहावेन कम्म विरयंति) आत्मीक स्वभाव में रत होने से कर्मों का क्षय होता है। विशेषार्थ शरीरादि मन की तरफ दृष्टि होने से अब्रह्म आदि के अनंत भाव पैदा होते हैं। स्पर्शन इन्द्रिय व रसना इन्द्रिय यह दो इन्द्रियां बड़ी प्रबल हैं, इनके आधीन होकर प्राणी बहुत अनर्थ करता है। अब्रह्म भाव के होने पर उसकी पूर्ति के लिये अनंत दोष व अनंत कर्मों का बंध होता है। मन और पर्याय में जुड़ने से इन्द्रियों के विषयों की अपेक्षा लेकर तथा शरीर कुटुम्ब परिवार के राग में फंसकर मान प्रतिष्ठा क्रोधादि कषाय से मन में अनेक प्रकार के कुभाव उत्पन्न होते हैं जिनसे अनंत कर्मों का बंध होता है। मन का विषयों में रमना आत्म स्वरूप से हटाने वाला है। - ज्ञान स्वभाव के जागृत होने पर मन विला जाता है। दृष्टि जब आत्म स्वभाव की ओर होती है जो अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभाव है, जहाँ शरीर इन्द्रिय मन आदि कोई भाव-विभाव ही नहीं है तभी कर्मों से मुक्ति होती है । आत्मानुभूति से ही कर्म क्षय होते हैं। राग के विकल्प और परलक्षी ज्ञान ही मेरी चीज है, ऐसी मान्यता के कारण ज्ञायक प्रकाशमान चैतन्य ज्योति ढक गई है। अपने में अपनी आत्मा के ज्ञान का अभाव होने से अंदर प्रकाशमान ज्ञान स्वभावी चैतन्य ज्योति विराजमान है उसको कभी जाना ही नहीं है और अनुभव भी नहीं किया है परंतु बाह्य प्रवृत्ति में जीव रुक गया, यही कर्म बंधन और संसार परिभ्रमण का 货到
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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