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序章中部
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******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी असब्दं च स उत्तं, असब्द कोह लोह संजुत्तं । असब्द अनर्थ रूर्व, न्यान सहावेन कम्म विरयंति ॥ २७३ ॥ असब्द अन्यान सुभावं, असब्दकम्मान तिविहिबंधान। असब्द असुद्ध रूवं, न्यान सहावेन कम्म विरयंति ॥ २७४ ॥
अन्वयार्थ - (असब्दं च स उत्तं) अशब्द रूप मौन रहना कार्यकारी नहीं है (असब्द कोह लोह संजुत्तं) मौन रहना, शब्द नहीं बोलना, अंतरंग में क्रोध लोभ सहित होना (असब्द अनर्थ रूव) ऐसा अशब्द रूप मौन रहना अनर्थकारी है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) ज्ञान स्वभाव से ही कर्मों से मुक्ति होती है।
(असब्द अन्यान सुभावं) अशब्द रूप मौन क्रोधादि भाव सहित अज्ञान स्वरूप है (असब्द कम्मान तिविहि बंधानं) ऐसे असब्द रूप मौन से तीनों प्रकार के कर्मों का बंध होता है (असब्द असुद्ध रूवं) अनंत भावों का भोग करता, स्वाद लेता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) इन कषाय भावों को त्याग कर आत्म स्वभाव में रत होने से ही कर्मों की निर्जरा होती है।
विशेषार्थ- अंतरंग भाव को अशब्द कहते हैं। कोई शब्द न बोले, मौन रहे परंतु अंतरंग में क्रोध, लोभ भाव सहित होना ऐसा मौन अनर्थकारी है। क्रोधादि कषाय अंतरंग में उठते हैं, जहाँ शब्द नहीं है यह औपाधिक। अशुद्ध भाव अज्ञान स्वभाव है, इससे तीनों प्रकार के द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म का बंध होता है। ऊपर से मौन होना और भीतर परभावों में नाना प्रकार के भावों का भोग करना यह अनंत कर्मबंध का कारण है, ऐसा अशब्द रूप मौन रहना कार्यकारी नहीं है। जहाँ इन भावों को छोड़कर ज्ञान स्वभाव में रमण होता है वहीं कर्मों की निर्जरा होती है।
आत्म स्वभाव से हटकर, परभाव क्रोधादि कषायों में रस लेना, इनका भोग करना अनंत कर्मबंध करने वाला है । रसना इंद्रिय के दो काम * हैं - १. बोलना, २. रस लेना, स्वाद चखना।
बोलना बंद करके अनंत भावों का स्वाद चखना, दुर्गति कर्मबंध का * कारण है। अज्ञानी जीव ऊपर के अशब्द रूप मौन रहकर अंतरंग कषाय भावों का नाना प्रकार से रस लेता हुआ निरंतर अनंत कर्मों का बंध करता है।
आत्मा ज्ञान स्वभाव ज्ञायक है और यह शरीर परिणाम को प्राप्त जो ***** * * ***
गाथा- २७३-२७६*-*--* इन्द्रियां हैं वह जड़ हैं तथा एक-एक विषय को ही खंड-खंड रूप से जानती हैं वह भावेन्द्रियां अर्थात् क्षयोपशम ज्ञान भी वास्तव में इन्द्रिय है, शरीर परिणाम को प्राप्त जड़ इन्द्रियां जैसे ज्ञायक का पर ज्ञेय हैं, वैसे ही शब्द, रस, रूप, गंध आदि को जानने वाली भावेन्द्रियाँ भी निश्चय से ज्ञायक का पर ज्ञेय हैं, ज्ञायक भगवान आत्मा का वह स्व ज्ञेय नहीं है वैसे ही भावेन्द्रियों से ज्ञात होने वाले जो शब्द रस गंध स्पर्शादि पर पदार्थ वह भी पर ज्ञेय हैं। स्वज्ञेयपने जानने लायक ज्ञायक और पर तरीके जानने लायक परज्ञेय इन दोनों की एकत्व बुद्धि ही मिथ्यात्व अज्ञान और संसार भाव है।
इन तीनों द्रव्येन्द्रियों, भावेन्द्रियों और उनके विषय भूत पदार्थों को जो जीते अर्थात् परज्ञेय की तरफ का लक्ष्य छोड़कर स्वज्ञेय जो शुद्ध ज्ञायक भाव स्वरूप आत्मा है उसका अनुभव करे, उसको जाने वह सम्यक्दृष्टि है और वही अपने ज्ञान स्वभाव में रत रहने से अनंत कर्मों की निर्जरा, क्षय करता है।
प्रश्न - रसना इन्द्रिय, जिव्हा से शब्द और रस स्वाव होता है यह कर्मबंध का कारण है तो इनसे छटने का उपाय क्या है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंजिह्वा स्वाद अनंतं, जिह्वा विचलंति स्वाद सहियानं। स्वाद अनंत भाव, अप्प सहावेन कम्म विरयति ।। २७५ ॥ जिहा स्वाद सुभावं, स्वाद सुभाव कम्म उववन्न । कम्मान बंध बंधं, न्यान सहावेन कम्म विरयंति ॥ २७६ ॥
अन्वयार्थ - (जिह्वा स्वाद अनंत) जिव्हा अर्थात् रसना इन्द्रिय अनंत प्रकार के स्वाद को ग्रहण करती है (जिह्वा विचलंति स्वाद सहियानं) स्वाद को लेकर रसना इन्द्रिय चंचल हो जाती है, तृष्णावान हो जाती है (स्वाद अनंत भावं) अनंत प्रकार के स्वाद को चाहती है (अप्प सहावेन कम्म विरयंति) जो इस स्वाद के राग को छोड़कर आत्मा के स्वभाव में रमण करते हैं उन्हीं के कर्मों की निर्जरा होती है।
(जिह्वा स्वाद सुभाव) जिव्हा के स्वाद का स्वभाव ऐसा है (स्वादं सुभाव कम्म उववन्नं) कि उस स्वाद में रंजायमान होने से राग रूपी भावकर्म पैदा हो जाता है (कम्मान बंध बंधं) उस राग भाव से कर्मों का बंध बंधता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) जो रसना इन्द्रिय को जीतकर ज्ञान स्वभाव में रत
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