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*-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
कम्म उपपत्ती) पुण्य के सहकार से कर्म पैदा होते हैं अर्थात् पुण्य कर्मों का बंध होता है ( पुन्य पाव उववन्नं) और पुण्य से पाप पैदा होता है (न्यान सहावेन कम्म विरयंति) जब उपयोग ज्ञान स्वभाव में लीन होता है तब ही कर्मों की निर्जरा होती है।
(सब्दं पर आनन्दं) शब्दों से दूसरों को ही आनंदित किया जाता है (सब्दं पज्जाव भाव उवलष्यं) शब्दों से पर पर्याय भाव का ही लक्ष्य रहता है (सब्दं कम्म अनेयं) शब्द अनेक काम करते हैं, अनेक कर्म बंध होने में निमित्त हैं (अप्प सहावेन कम्म विरयंति) इन सब शब्दों को छोड़कर अशब्द आत्म स्वभाव में रमण करने से ही कर्मों की निर्जरा होती है।
विशेषार्थ अबंध होने के लिये शब्दों से हटकर अशब्द आत्म स्वभाव की दृष्टि होनी चाहिये । शब्द नहीं, शब्द के मर्म को पकड़ने से आत्म कल्याण होता है । जगत में शब्दों का व्यवहार दो प्रकार के भावों में किया जाता है, यदि दया, दान, जप-तप, परोपकार, पूजा, भक्ति स्तुति आदि रूप शब्दों का व्यवहार है तब तो पुण्य बंध होता है। यदि विषय कषाय, पाप रूप, पर के अपकार रूप, हास्य रूप, निंदा रूप, ईर्ष्या रूप, हास्य कौतूहल रूप, कामोत्तेजक रूप शब्दों का व्यवहार होता है तब पाप कर्म का बंध होता है । शुभ भावना युक्त शब्द पुण्य व अशुभ भावना युक्त शब्द पाप बंध में कारण होते हैं। कर्मों का बंध संसार में भ्रमण कराने वाला है।
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जिन शब्दों का लक्ष्य अध्यात्म चर्चा है जो शब्द, अशब्द आत्मा पर लक्ष्य दिलाते हैं वे शब्द सर्व उत्तम हैं, यद्यपि उनसे भी पुण्य का बंध होता है तथापि वे शब्द अपने आत्म स्वभाव को बताने वाले, परमार्थ मुक्ति का मार्ग बताने वाले शुभ श्रेष्ठ कहे जाते हैं। इन शब्दों के मनन से उपयोग (दृष्टि) आत्मस्थ हो जाता है तब पूर्व बद्ध कर्मों का क्षय होता है, नवीन कर्म बंध नहीं होता, यही अबंध मुक्त होने का उपाय है।
जहाँ तक स्वानुभव नहीं है और अंतर्जल्प अर्थात् भीतर वचन वर्गणा रूप शब्द गूंज रहे हैं, चिंतन-मनन चल रहा है अथवा बहिर्जल्प अर्थात् प्रगट रूप शब्दों का कहना है, प्रवचन संभाषण रूप व्यापार चल रहा है, वहाँ तक अवश्य पुण्य कर्मों का बंध है। पुण्य भाव से ही पाप पैदा होता है इसलिये शब्दातीत भाव में रमने का ही पुरुषार्थ करना योग्य है ।
शब्दों का प्रयोग नाना प्रकार से होता है। बहुत से शब्द इसी अभिप्राय
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गाथा २७०-२७२ *******
से कहे जाते हैं कि दूसरे लोग प्रसन्न रहें, जनरंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव को बढ़ाने वाले शब्दों का प्रयोग, पर और पर्याय के लक्ष्य से ही किया जाता है । कोई शब्द अपने शरीर सुख व पर के शरीर सुख के लिये कहे जाते हैं, कोई शब्द किन्हीं के किये गये अच्छे-बुरे कामों की अनुमोदना रूप होते हैं। इन शब्दों में शुभ-अशुभ अभिप्राय के अनुसार पुण्य-पाप कर्म का बंध होता है, जहाँ तक वचन वर्गणा रूप शब्दों का व्यवहार है वह सब कर्म बंध का कारण है। ज्ञानी कर्मों की निर्जरा के लिये शब्दों का व्यवहार छोड़कर जब शब्द रहित आत्मा में लीन होता है तब ही कर्मों से छुटकारा होता है।
शब्द, उपदेश, अंत: करण और इन्द्रिय इत्यादि को विरूप कारणता से ग्रहण करके और उपलब्धि (क्षयोपशम) संस्कार इत्यादि को अंतरंग स्वरूप कारणता से ग्रहण करके प्रवृत्त होता है और वह प्रवृत्त होता हुआ, सप्रदेश को ही जानता है क्योंकि वह स्थूल को ही जानने वाला है। अशब्द को नहीं जानता क्योंकि वह सूक्ष्म को जानने वाला नहीं है। वह मूर्त को ही जानता है क्योंकि वैसे मूर्तिक विषय के साथ उसका सम्बंध है। वह अमूर्त को नहीं जानता क्योंकि अमूर्तिक विषय के साथ इन्द्रिय ज्ञान का सम्बंध नहीं है। वह वर्तमान को ही जानता है क्योंकि विषय-विषयी के सन्निपात सद्भाव है। वह प्रवर्तित हो चुकने वाले को और भविष्य में प्रवृत्त होने वाले को नहीं जानता क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष का अभाव है।
इन्द्रिय ज्ञान परावलंबी और प्रत्येक ज्ञेय अनुसार परिणमन शील होने से व्याकुल तथा मोह के संपर्क से सहित होता है इसलिये वास्तव में वह इन्द्रिय ज्ञान शब्द दुःखरूप कर्मबंध का कारण है ।
भाव यह है कि मैं केवलज्ञान और केवलदर्शन स्वभाव रूप से ज्ञायक एक टंकोत्कीर्ण स्वभाव आत्मा हूँ। ऐसा होता हुआ, मेरा पर द्रव्यों के साथ स्व स्वामीपने आदि का कोई सम्बंध नहीं है। मात्र ज्ञेय ज्ञायक सम्बंध है, सो भी व्यवहार नय से है। निश्चय नय से यह ज्ञेय ज्ञायक सम्बंध भी नहीं है, ऐसा जानकर जो निज स्वभाव में लीन होता है वह ज्ञानी सब कर्म बंध से छूटकर मुक्ति पाता है ।
प्रश्न- क्या अशब्द रूप मौन रहने से मुक्ति हो जायेगी ?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं -
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