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________________ 2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा- २७०-२७२*** * * ** त्र ES -E- S E (कसनस्य कम्म भाव उपपत्ती) कसन का अर्थात कषाय राग भाव से कर्म पैदा होते हैं। जैसे-रस्सी से कसकर ढोल मृदंग आदि को बजाया जाता है, * उससे जो शब्द निकलते हैं, भाव पैदा होते हैं, उसमें रंजायमान होना कर्मबंध * का कारण है। इसी प्रकार रसबुद्धि कषायभाव कर्मबंध के कारण हैं (तंती अनंत भावं) तांत के बाजे में भी अनंत भाव पैदा होते हैं। तांत-चमड़े की पतली झिल्ली को कहते हैं। इसी प्रकार आंतरिक भाव अनंत होते हैं जो कर्मबंध के कारण हैं (अतिंदी सहकार कम्म विरयंति) जब इन शब्द रूप भावों से दृष्टि हटाकर अपने अतीन्द्रिय आत्म स्वरूप में तन्मयता होती है तब कर्मों की निर्जरा होती है। (तारं नंत विषेसं) तारों के द्वारा बजने वाले बाजों के अनेक प्रकार के स्वर ताल होते हैं, ऐसे ही अंतरंग के परिणामों के अनेक तार होते हैं, जो सामने वाले जीवों से राग-द्वेष, बैर-विरोध कर कर्म बंध कराते हैं (फूकं कम्मान भाव उववन्नं) फूंक के बाजे-बांसुरी आदि के स्वरों में रंजायमान होने से कर्म भाव पैदा होते हैं, इसी प्रकार मन में उठने वाली हवा, भावरूप लहरों में तरंगित होने से कर्म पैदा होते हैं (सब्द सहाव असुद्धं) सब ही शब्दों का स्वभाव पौद्गलिक अशुद्ध है (अतिंदी भाव कम्म विपनं च) जो शब्दों में राग भाव छोड़कर शब्द रहित आत्मा में लीन होता है, उसी के कर्मों का क्षय होता है। विशेषार्थ- रसनि, कसनि, तंति, तार, फूंक के वाद्ययंत्र होते हैं। जैसे- ढोल, मृदंग, घंटा, ताल, मजीरा, सितार, वीणा, हारमोनियम, बांसुरी आदि । इनके स्वरों में, शब्दों में जो राग भाव पैदा होता है उससे कर्म बंध होता है। इसी प्रकार रस बुद्धि, कषाय भाव, लेश्या, मन के संकल्प-विकल्प और भीतर पैदा होने वाले मोह, राग-द्वेष भाव इस अंतरंग शब्द रूप प्रवृत्ति में दृष्टि लगने से कर्मबंध होते हैं। रसनि - रस्सी द्वारा बंधे, ढोल, मृदंग। कसनि- कांसे के घंटा, ताल, * मंजीरा । तंति - हारमोनियम आदि । तार के - सितार, वीणा आदि । फूंक के - बांसुरी आदि वाद्ययंत्र होते हैं। जिनसे नाना प्रकार के शब्द स्वर निकलते * हैं जो जीवों को रंजायमान करते हैं। इसी प्रकार अंतरंग में रस बुद्धि, सुख * बुद्धि, भोग बुद्धि, संग्रह बुद्धि और मन के संकल्प-विकल्पों में रंजायमान रहने से कर्म बंध होता है। शब्द रूप जितना भी मायाजाल है, चाहे वह बाहर का हो या भीतर का हो, इनमें दृष्टि लगने से कर्मबंध होता है। शब्द पुद्गल परमाणुओं के स्कंध से पैदा होता है अतएव इन सर्व शब्दों से दृष्टि हटाकर जो अतीन्द्रिय आत्मा में तन्मय होता है उसी के कर्मों की निर्जरा होती है। प्रश्न- यदि शब्द मायाजाल है तो जिनवाणी भी शब्द रूप है, बिना शब्द ज्ञान के आत्मज्ञान कैसे होगा? समाधान - जो कुछ शास्त्र का ज्ञान होता है उसमें शब्द निमित्त हैं 8 इसलिये इस ज्ञान को शब्द श्रुतज्ञान कहते हैं परंतु वह आत्मज्ञान नहीं है। जिस ज्ञान में शब्द श्रुत आधार है किन्तु आत्मा आधार नहीं है वह शब्द श्रुतज्ञान है, उससे आत्मज्ञान नहीं होता। शब्द श्रुत को जानने का जितना विकल्प है वह ज्ञान परलक्षी है । परलक्षी ज्ञान होने का निषेध किया है, जैसे-भक्ति आदि बंध का कारण है वैसे ही शास्त्र ज्ञान भी पुण्य बंध का कारण है लेकिन उसमें से निकलकर ज्ञायक आत्मा का अनुभव करना वह मोक्ष का कारण है। प्रश्न - जब शब्द बंध के कारण हैं तो अबन्ध होने के लिये क्या करें? ___इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - सब्दं असब्द दिडी, सब्दं सुह असुह कम्म बंधानं । संसार सरनि बूडं, अप्प सहावेन कम्म विपिऊनं ॥ २७० ॥ सब्दं च सुहं दिह, पुन्य सहकार कम्म उपपत्ती। पुन्य पाव उववन्न, न्यान सहावेन कम्म विरयंति ॥ २७१ ॥ सब्दं पर आनन्दं, सब्दं पज्जाव भाव उवलष्यं । सब्दं कम्म अनेयं, अप्प सहावेन कम्म विरयति ।। २७२ ॥ अन्वयार्थ -(सब्दं असब्द दिट्टी) शब्द से हटकर जिनकी दृष्टि अशब्द आत्मा की तरफ हो (सब्द सुह असुह कम्म बंधानं) शब्द पर दृष्टि होने से शुभ-अशुभ कर्मों का बंध होता है (संसार सरनि बूड) जो संसार परिभ्रमण में डुबाता है (अप्प सहावेन कम्म षिपिऊन) आत्म स्वभाव में लीन होने से ही कर्मों का क्षय होता है। (सब्दं च सुहं दिट्ट) जहाँ शुभ शब्द देखे जाते हैं वहाँ (पुन्य सहकार १६७ - - SHESE- SE:
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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