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________________ 克-華克·章克·帘惠尔克·華卓華 *-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी . दिखाई नहीं देते, अनुभव में तथा ज्ञान में जानने में आते हैं। अब चैतन्य की जो दृष्टि अर्थात् उपयोग है वह (सब्दं संसार सरनि पिच्छंतो) संसार परिभ्रमण के देखने जानने में लगा है, अर्थात् संसार, शरीर, इन्द्रियादि कर्म के चक्कर में है तो (कम्म उवनं भावं) इससे कर्म बंध कारक भाव पैदा होते हैं (अतींदी सहकार कम्म विरयंति) जब दृष्टि इन इन्द्रिय मन शब्दादि से हटकर अतीन्द्रिय आत्मा में सहकार करती है तब कर्मों की निर्जरा होती है। (सब्दं च सब्द रूवं) शब्द भी अनेक रूप होते हैं, जो भाषा रूप और कई रूप होते हैं, जैसे (रसनि कसनि तंति तार फूकं च) ढोल, मृदंग, सितार, वीणा, ताल, घंटा, बांसुरी, शंख आदि जिनसे अनेक रस के, जैसे- श्रृंगार रस, वीर रस, वीभत्स रस आदि के शब्द निकलते हैं (सब्द सहाव सकम्मं ) इन शब्दों के भीतर रंजायमान होने से कर्मों का बंध होता है (अतिंदी सहकार कम्म विरयंति) जो अतीन्द्रिय आत्मा में लीन होता है उसके कर्मों की निर्जरा होती है। विशेषार्थ दृष्टि का खेल और कर्म का चक्र बड़ा विचित्र और सूक्ष्म है। कर्म से कर्म बंधते हैं, कर्म में कर्म बंधते हैं। आत्मा कम से परे अतीन्द्रिय है; परंतु आत्मा की दृष्टि (उपयोग) के सद्भाव पर ही कर्मों का बंध और कमों का क्षय होता है ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है। कर्मोदय निमित्त से दृष्टि उस रूप होती है और दृष्टि के सद्भाव से कर्मबंध होता है । - अदिस्ट अर्थात् जो चर्म चक्षु से दिखाई नहीं देते, ऐसे मन, शब्द, कर्म और आत्मा यह सब अदिस्ट कहलाते हैं। इनमें मन शब्द कर्म यह जड़ अचेतन हैं और आत्मा चेतन ज्ञान स्वभावी अतीन्द्रिय है। जब जीव की दृष्टि (उपयोग) संसार की ओर देखती है, जहाँ राग रंग, कौतूहल रूप, इन्द्रिय विषयों में रंजायमान रूप होने व क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय की पुष्टि रूप अशुभ भाव सहित होती है तब पाप कर्म का बंध होता है। जब शुभ भाव सहित पूजा, पाठ, जप, तप, दया, दान, परोपकार आदि कार्यों में लगती है तब पुण्य कर्म का बंध होता है और यह दोनों प्रकार के कर्म बंधन से हटकर अतीन्द्रिय आत्म स्वभाव के आनंद में रमण होता है तब ही कर्मों का क्षय होता है। मन, वचन, काय यह तीनों ही आत्मा से भिन्न अचेतन जड़ कर्मोदय 00000000000000000000000000 १६६ गाथा - २६८, २६९ ***** जन्य हैं। मन में उठने वाले भाव, वचन रूप शब्द और शरीर की क्रिया इनमें दृष्टि के रंजायमान होने से कर्मों का बंध होता है। शब्द भी अनेक प्रकार के होते हैं, भीतर बोलने वाले कषाय रूप होते हैं, बाहर होने वाले शब्द ( भाषा) वर्गणा भी कई रूप होती है। इनमें संगीत के सात स्वर प्रसिद्ध हैं, वाद्य यंत्रों से निकलने वाले स्वर भी अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे रसनि, कसनि, तंति, तार, फूंक आदि से निकलते हैं। इन शब्दों में रंजायमान होने से भी कर्म का बंध होता है। जब दृष्टि सर्व प्रकार के शब्दों से छूटकर अशब्द अतीन्द्रिय आत्मा में लवलीन होती है तब कर्मों की निर्जरा होती है। जब तक कर्म बंधन है तब तक संसार है। कर्म बंधन से रहित मोक्ष, सिद्ध पद है। जिस प्रकार दीपक से प्रकाशनीय वस्तु को जानकर दीपक को उस वस्तु से अलग किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञान से ज्ञेय को जानकर, ज्ञान को ज्ञेय से अलग किया जाता है। जो ज्ञान, आत्मा का स्वरूप है, सूक्ष्म है, व्यपदेश रहित अथवा वचन के अगोचर है उसका त्याग अथवा पृथक्करण नहीं होता, उससे भिन्न जो इन्द्रिय आदि द्वारा विभाव परिणत ज्ञान है उसको दूर किया जाता है। अंतरंग में अभ्यास करें, देखें तो यह आत्मा अपने अनुभवन से ही जानने योग्य जिसकी प्रथम महिमा है, ऐसा व्यक्त अनुभव गोचर निश्चल, शाश्वत, नित्य, कर्म कलंक कर्दम से रहित स्वयं ऐसा स्तुति करने योग्य देव विराजमान है। शुद्ध नय की दृष्टि से देखा जाये तो सर्व कर्मों से रहित चैतन्य मात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंग में स्वयं विराजमान है। यह प्राणी पर्याय बुद्धि बहिरात्मा उसे बाहर ढूंढता है यह महा अज्ञान है । प्रश्न- रसनि, कसनि, तंति, तार, फूंक आदि के शब्दों का क्या प्रयोजन है ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - रसनस्य रसन भावं, कसनस्य कम्म भाव उपपत्ती । तंती अनंत भावं, अहिंदी सहकार कम्म विरयति ।। २६८ ।। तारं नंत विषेसं, फूकं कम्मान भाव उववन्नं । सब्द सहाव असुर्द्ध, अतिंदी भाव कम्म विपनं च ।। २६९ ।। अभ्वयार्थ (रसनस्य रसन भावं) रसन का रसभाव होता है - *
SR No.009724
Book TitleUpdesh Shuddh Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherAkhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj
Publication Year
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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