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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * से कोई यह मान लेवे कि सम्यक् दृष्टि को तनिक भी विभाव व बंध नहीं है तो * वह एकांत है । समकिती को अंतर शुद्ध स्वरूप की दृष्टि और स्वानुभव होने * पर भी जितनी आसक्ति शेष है, जो उसे दुःखरूप लगती है उतना बंध है।
ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई है, वह द्रव्य स्वभाव के आलंबन द्वारा अंतर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता है परंतु जब तक अपूर्ण दशा है, पुरुषार्थ मंद है, पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरूप में स्थिर नहीं हो सकता, तब तक वह शुभ परिणाम से संयुक्त होता है परंतु वह उन्हें आदरणीय नहीं मानता है, उनकी स्वभाव में नास्ति है, इससे पात्रतानुसार कर्मों की निर्जरा होती जाती है।
संसार में दृष्टि का ही सब खेल है, इसी से कर्मबंध होते हैं, इसी से कर्मक्षय होते हैं। जैसी दृष्टि - वैसी सृष्टि । दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल जाती है। मिथ्यादृष्टि - संसारी है। सम्यक्दृष्टि - मुक्त है।
सम्यक दृष्टि धर्मात्मा की दृष्टि अंतर के ज्ञानानंद स्वभाव ऊपर है, क्षणिक रागादि ऊपर नहीं है। उसकी दृष्टि में रागादि का अभाव होने से उसको (दृष्टि अपेक्षा) संसार कहां रहा? राग रहित ज्ञानानंद स्वभाव ऊपर दृष्टि होने से वह मुक्त ही है, उसकी दृष्टि में मुक्ति ही है। मुक्त स्वभाव ऊपर की दृष्टि में बंधन का अभाव है।
यथार्थ दृष्टि होने के पश्चात् भी ज्ञानी, देव, गुरु, शास्त्र की भक्ति आदि के शुभ भाव में संयुक्त होता है; परंतु वह ऐसा नहीं मानता कि इससे धर्म । होगा। सम्यकदर्शन होने के बाद स्थिरता में विशेष वृद्धि होने पर उसे व्रतादि के परिणाम आते हैं परंतु वह उससे धर्म नहीं मानता । सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की निर्मल शुद्ध पर्याय जितने अंश में प्रगट होती है वह उसे ही धर्म मानता है। दया पूजा भक्ति आदि के शुभ परिणाम तो विकारी भाव हैं. उनसे पुण्य बंध होता है लेकिन धर्म नहीं होता।
सम्यक्दृष्टि का ज्ञान अति सूक्ष्म है । वह दृष्टि के स्वभाव-विभाव रूप * परिणमन को भी पकड़ता है। राग और स्वभाव के बीच की संधि को बुद्धिगम्य भिन्न करता है।
मिथ्यादृष्टि को स्व-पर का कोई बोध ही नहीं होता अत: उसकी दृष्टि * तो पर-संसार शरीरादि में ही रत रहती है, वह दृष्टि नहीं अदृष्टि है। जब तक
अपने स्वरूप का बोध नहीं होता तब तक दृष्टि भी पकड़ में नहीं आती।
गाथा- २६६,२६७** ***** अज्ञानी मन को ही सब कुछ जानता मानता है। जिसे भेदज्ञान पूर्वक स्व-पर का यथार्थ ज्ञान श्रद्धान होता है उसे ही दृष्टि पकड़ में आती है। विवेक ही दृष्टि को पकड़ता है और उस पर ही संसार का सारा खेल चलता है। कर्म बंधन ही संसार है और कर्मों की निर्जरा, क्षय हो जाना मुक्ति है।
प्रश्न-यह कर्म क्या है?
समाधान-कर्म, अदृश्य शक्ति, माया भ्रम जाल है, जो पुद्गल कर्म वर्गणाओं द्वारा बंधता है। कर्म, पुद्गल, अचेतन जड़ हैं, यह जीव की दृष्टि के सद्भाव पर बंधते और क्षय होते हैं।
कम्म सहावं विपनं, उत्पत्ति विपिय दिस्टि सभावं । चेयन रूव संजुत्तं, गलियं विलयं ति कम्म बंधानं ॥
(कमलबत्तीसी-गाथा ६) कर्मों का स्वभाव तो जड़ और नाशवान है, यह दृष्टि के सद्भाव पर पैदा होते हैं और क्षय होते हैं अर्थात् जब जीव की दृष्टि पर की तरफ विभाव रूप होती है तब कर्मों का आश्रव बंध होता है और जब स्वभाव रूप दृष्टि होती है तब कर्मों का क्षय होता है। जो अपने चैतन्य स्वरूप में लीन हो जाता है, उसके तीनों प्रकार के बंधे हुए कर्म भी गल जाते, विला जाते हैं।
कर्म का बंध दिखता नहीं है, कर्म का उदय फल के रूप में दिखता है। पूरी सृष्टि संसार का सारा परिणमन, कर्म के निमित्त से ही चल रहा है। जब तक जीव अज्ञान दशा में है तब तक इन कर्मों के चक्कर में संसार में रुल रहा है। जो जीव अपने सत्स्वरूप का बोध करके ज्ञानी हो जाता है, वह इन कर्मों के चक्र से छूट जाता है।
प्रश्न- यह टिका खेल और कर्म का चक्र कैसा है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अदिस्ट सद्भाव उत्तं, सब्दं संसार सरनि पिच्छंतो। कम्म उवनं भावं, अतींदी सहकार कम्म विरयंति ॥ २६६ ॥ सब्दं च सब्द रूवं, रसनि कसनि तंति तार फूकंच। सब्द सहाव सकम्मं,अतिंदी सहकार कम्म विरयंति ॥ २६७॥
अन्वयार्थ-(अदिस्ट सद्भाव उत्तं) अदिस्ट का स्वभाव कहते हैं, अदिस्ट में कर्म, शब्द और आत्मा यह तीनों आते हैं, जो चर्म चक्षुओं से
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